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धर्म रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


आप लोग अवश्य समझ गये होंगे कि जटिलता क्या है। न्यायशास्त्रविद् इसको अन्योन्याश्रय दोष कहते हैं - पहले का भाव दूसरे पर निर्भर हो रहा है - और दूसरे का भाव पहले पर निर्भर हो रहा है। इसीलिए आपकी युक्ति के पथ में एक बड़ी भारी बाधा दिखायी पड़ रही है जिसको लाँघकर बुद्धि अग्रसर हो नहीं सकती। तथापि इसके परे जो अनन्त राज्य विद्यमान है, वहाँ पहुँचने के लिए बुद्धि सदा व्यस्त रहती है। कहने का तात्पर्य है कि पंचेन्द्रियगम्य और मन का विषयीभूत यह जगत् - हमारी चेतन-भूमि पर प्रक्षिप्त यह विश्व मानो उस अनन्त सत्ता का एक कण मात्र है; और चेतनरूप जाल से घिरे हुए, इस विश्व-जगत् के क्षुद्र-से घेरे के भीतर ही हमारी विचार-शक्ति काम करती हैं - उसके परे नहीं जा सकती। इस कारण इसके परे जाने के लिए और किसी साधन का प्रयोजन है। अतीन्द्रियबोध वह साधन है। अतएव सहज ज्ञान, विचार-शक्ति और अतीन्द्रियबोध, ये तीनों ही ज्ञानलाभ के साधन हैं। पशुओं में सहज ज्ञान, मनुष्य में विचार-शक्ति और देव मानव में अतीन्द्रियबोध दिखायी पडता है। परन्तु सब मनुष्यों में ही इन तीनों साधनों का बीज थोड़ा बहुत परिस्फुटित दिखायी पडता है।

इन सब मानसिक शक्तियों का विकास होने के लिए उनके बीजों का भी मन में विद्यमान रहना आवश्यक है और यह भी स्मरण रखना कर्तव्य है कि एक शक्ति दूसरी शक्ति की विकसित अवस्था ही है, इसलिए वे परस्पर-विरोधी नहीं हैं। विचार-शक्ति ही परिस्फुटित होकर अतीन्द्रियबोध में परिणत हो जाती है, इसीलिए अतीन्द्रियबोध विचार-शक्ति का परिपन्थी नहीं है, परन्तु उसका पूरक है। जो जो विषय विचार-शक्ति के द्वारा समझ में नहीं आते उन सबको अतीन्द्रियबोध द्वारा समझाना पड़ता है और वह विचार-शक्ति का विरोधी नहीं है। वृद्ध बालक का विरोधी नहीं है, परन्तु उसी की पूर्ण परिणति है। अतएव आपको सर्वदा स्मरण रखना होगा कि निम्न श्रेणी की शक्ति को उच्च श्रेणी की शक्ति कहकर जो भूल की जाती है, उससे भयानक विपद की सम्भावना है।

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