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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


'मैं...ओह, तुम्हें...' वह फीकी हँसी हँसते हुए सँभलकर बोला, 'कुछ भी तो नहीं। आज न जाने तुम मुझे इतनी सुन्दर क्यों दीख रही हो!'

'चलिए हटिए! आपको तो मज़ाक ही सूझता है।'

'चलो मज़ाक ही सही...परन्तु यह झूठ नहीं।' विनोद ने माधवी की कमर में हाथ डालते हुए उसे अपने निकट खींच लिया।

'कितना सुहावना समय है!' उसने उड़ते हुए बालों की लट सुलझाते हुए कहा।

'यही तो मैं कह रहा हूँ।' विनोद ने उसका समर्थन किया।

'तो आपको भी अवकाश मिल गया है!'

'अवकाश? अब तो अवकाश ही होगा...एक बात मानोगी?'

'क्या?'

'सामने वह झील देखती हो न?'

'हूँ।'

'चलो, उसमें कूद पड़े।'

'किसलिए?'

'डूबने को नहीं, तैरने को। आज इस निर्मल जल में तैरने को मन चाहता है।'

'तो जाइए!'

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