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ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट

एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


'इस वातावरण से दूर...मेरी बदली हो गई...आज ही रात मुझे धर्मशाला जाना है।'

'परन्तु यह एकाएक कैसे?'

'सरकार की आज्ञा है, मैं क्या करूँ?'

'और कामिनी?'

'उसका नाम मत लो मेरे सामने। मेरे लिए मर चुकी है वह।'

'पगला! ऐसे शब्द मुंह पर नहीं लाते...जीवन के सम्बन्ध भला यों टूटते हैं।'

'मैं इन्हें तोड दूंगा।'

भाभी ने अधिक वाद-विवाद करना उचित न समझा और खाने की तैयारी करने लगी। उसने कई बार सोचा कि कामिनी को बुलवा ले; परन्तु विनोद के डर से ऐसा न कर सकी।

विनोद उसी रात धर्मशाला चला गया। वहां की पर्वतीय घाटियों मे नदी-नालों पर कितने ही पुल बन रहे थे और वहाँ ऐसे व्यक्तियों की बड़ी आवश्यकता थी, इसीलिए उसकी पहली प्रार्थना पर उसे वहाँ नियुक्त कर दिया गया था।

धर्मशाला का स्वास्थ्यकर जलवायु, हिमपूर्ण शिखाएँ और प्रकृति का मौन उसे बड़ा प्रिय लगा। वह एकान्त में जीवन के अन्धकार को भूल जाना चाहता था। वह दुर्भाग्य पर रोने के बजाय इन प्राकृतिक सुन्दर दृश्यों में खो जाना चाहता था।

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