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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘तो मैं कब....।’

इतने में दीपक कमरे में लौट आया।

‘अच्छा लिली, अब चलता हूं। टाटा!’ और सागर कमरे से बाहर चला गया। सागर के चले जाने पर दीपक फिर लिली के समीप ही कुर्सी पर आ बैठा। लिली ने करवट लेकर मुख उसकी ओर कर लिया और पूछा, ‘कहां गए थे?’

‘यों ही बाहर तक। परंतु मुझे आज पता चला कि तुम झूठ भी कितनी योग्यता से बोलना जानती हो।’

‘कैसा झूठ!’ लिली ने आश्चर्य भरे स्वर में पूछा।

‘यही कि हम आधी पिक्चर छोड़कर आ गए।’

लिली हंस पड़ी, ‘तुम्हारा मतलब यह है कि सच बोल देती कि तुम्हें मेरा उसके साथ जाना पसंद नहीं।’

‘नहीं तो, मैं स्वयं डर रहा था कि कोई इस प्रकार की बात न कह दो कि वह मुझ पर आए। यह तो अच्छा हुआ कि तुमने हवा का रुख बदल दिया।’

‘क्यों! मानते हो गुरु? तुम तो कहा करते हो कि पुरुष अधिक होशियार होते हैं स्त्रियों से!’

‘अच्छा भई, हम हारे तुम जीतीं। उठो दवाई पी लो।’

‘यह एक और मुसीबत।’

‘मुसीबत कैसी?’

‘कड़वी इतनी है कि पीते ही नानी याद आ जाए। थोड़ी चीनी ला दो।’

‘पगली कहीं की! कोई दवाई से साथ भी चीनी खाता है?’

लिली ने अब आनाकानी नहीं की। दवा पी ली और खाली प्याला दीपक को पकड़ाते हुए बोली, ‘तुम कितने अच्छे हो। इतना तो कोई सगा भी किसी से न करे जितना तुम मुझसे....।’

‘तो क्या तुम मुझे पराया समझती हो?’

‘नहीं तो, यह बात नहीं। वैसे ही कभी-कभी सोचती हूं कि तुम मेरा इतना ख्याल क्यों रखते हो, मैंने तो कभी तुम्हारा कोई काम नहीं किया।’

‘मैं तुम्हारा ध्यान क्यों रखता हूं?’ दीपक मुस्कराने लगा, ‘इसलिए कि तुम मुझे अच्छी लगती हो और जो वस्तु किसी को अच्छी लगे उसके लिए मनुष्य क्या-क्या नहीं करता है, यह तो तुम भली प्रकार समझ सकती हो।’

‘तुम्हारी यह कविता तो मेरी समझ के बाहर है। जरा सामने की खिड़की बंद कर दो, हवा आ रही है।’

दीपक ने उठकर खिड़की बंद कर दी।

‘एक काम कहूं, करोगे?’लिली दीपक की ओर देखते हुए बोली।

‘क्यों नहीं!’ उसने समीप आते हुए कहा।

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