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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

जरा मेरी पीठ सहला दो। न जाने क्यों बहुत देर से जलन हो रही है। लिली ने पेट के बल लेटते हुए कहा।

दीपक चुपचाप उसके बिस्तर पर बैठ गया और धीरे-धीरे उसकी पीठ सहलाने लगा। लिली बोली, ‘तुम भी कहोगे कि हुक्म चलाए जा रही हूं। करूं भी क्या? और घर में है ही कौन। देखो न अब लड़कियों के काम भी तुमसे ले रही हूं।’

दीपक चुपचाप सुनता रहा।

‘जरा और जोर से। तुम तो ऐसे नरम-नरम हाथ लगा रहे हो जैसे शरीर में जान ही न हो।’

दीपक और जोर से सहलाने लगा। उसका हृदय जोर-जोर से धड़क रहा था। उसके हाथ तेजी से रेशमी वस्त्रों पर चल रहे थे। हाथ और शरीर की रगड़ से एक आग-सी उत्पन्न हो रही थी जिससे उसका हाथ जलने-सा लगा, परंतु इस जलन में भी उसे एक आनंद का अनुभव हो रहा था।

‘यदि तुम लड़की होते तो अंदर हाथ डालकर सहलाने को कहती।’

‘कुछ समय के लिए मुझे लड़की समझ लो।’

‘ऊं ऊं, यह कैसे हो सकता है?’

‘क्यों नहीं हो सकता?’ दीपक ने यह कहते ही लिली का शरीर अपने हाथों पर उलट लिया और उसकी मस्त आंखों में अपनी आंखें डुबो दीं।

लिली घबराकर बोली, ‘मेरी ओर घूर-घूरकर क्या देख रहे हो? मुझे इस प्रकार अपनी बांहों में क्यों उठा रखा है? तुम्हें ध्यान नहीं कि मंो बीमार हूं?’

दीपक उसके हृदय की तेज धड़कन स्वयं अनुभव कर रहा था।

‘ओह! मैं तो भूल ही गया कि तुम बीमार हो।’ उसने लिली का शरीर ढीला छोड़ते हुए कहा और कुर्सी पर जा बैठा।

लिली क्रोधित होकर बोली, ‘यह कभी-कभी तुम्हें क्या हो जाता है? तुम पढ़े-लिखे मनुष्य हो, फिर न जाने जंगलीपन क्यों कर बैठते हो? कल रात भी....।’

यह कहते-कहते वह रुक गई।

‘लिली, मैं एक मनुष्य हूं, देवता नहीं।’

‘परंतु यहां तुम्हें देवता बनकर रहना होगा।’

‘यह किस प्रकार संभव है कि कोई आग में जल रहा हो और उसके कपड़े न जले।’

‘साफ-साफ कहो, तुम कहना क्या चाहते हो?’

दीपक ने लिली की ओर देखा। कितनी सुंदर लग रही थी! वह आज अवश्य अपने हृदय के उद्गार उसके सामने उड़ेल देता और वह बोल ही तो पड़ा, ‘लिली, मैं तुमसे प्रेम करता हूं। तुम्हें अपना जीवन-साथी बनाना चाहता हूं।’

‘अब तुम्हें हुआ क्या है, होश में तो हो?’

‘होश में हूं। बहुत दिनों से प्रयत्न कर रहा था कि तुमसे यह सब कह दूं, परंतु तुम्हारा बचपन का-सा बर्ताव और वह आदर जो मेरे हृदय में तुम्हारे लिए है, मुझे इस अशिष्टता की आज्ञा नहीं देते थे और...।’

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