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गुनाहों का देवता

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :614
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9577

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संवेदनशील प्रेमकथा।


गेसू हँसी और बैठ गयी। चन्दर बोला, “आप अभी तक कविताएँ लिखती हैं?”

“कविताएँ...” गेसू फिर हँसी और बोली, “जिंदगी कितनी हमगीर है, कितनी पुरशोर, और इस शोर में नगमों की हकीकत कितनी! अब हड्डियाँ, नसें, प्रेशर-प्वाइंट, पट्टियाँ और मरहमों में दिन बीत जाता है। अच्छा चन्दर भाई, सुधा अभी उतनी ही शोख है? उतनी ही शरारती है!”

“नहीं।” चन्दर ने बहुत उदास स्वर में कहा, “जाओ, कभी देख आओ न!”

“नहीं, जब तक कहीं जगह नहीं मिल जाती, तब तक तो इतनी आजादी नहीं मिलेगी। अभी यहीं हूँ। उसी को बुलवाऊँगी और उसके पति देवता को लिखूँगी। कितना सूना लग रहा है घर जैसे भूतों का बसेरा हो। जैसे परेत रहते हों!”

“क्यों 'परेत' बना रही हैं आप? मैं रहता हूँ इसी घर में।” चन्दर बोला।

“अरे, मेरा मतलब यह नहीं था!” गेसू हँसते हुए बोली, “अच्छा, अब मुझे तो अम्मीजान नहीं भेजेंगी, आज जाने कैसे अकेले आने की इजाजत दे दी। आपको किसी दिन बुलवाऊँ तो आइएगा जरूर!”

“हाँ, आऊँगा गेसू, जरूर आऊँगा!” चन्दर ने बहुत स्नेह से कहा।

“अच्छा भाईजान, सलाम!”

“नमस्ते!”

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