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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

मेरीन ड्राइव के स्टेशन पर गाड़ी तनिक देर रुकी और फिर फर्राटे भरने लगी। इस बीच में उस युवक यात्री ने नीरा की ओर एक बार भी नहीं देखा। क्या वर्षा की यह रिमझिम उससे अधिक आकर्षक थी…अधिक मोहिनी थी। न जाने नीरा को यह विचार क्यों आया। उसने कुछ सोचकर पर्स में से छोटा-सा दर्पण निकाला और मेकअप ठीक करने लगी। अर्द्धरात्रि में भागती हुई रेल, अकेला डिब्बा…युवक और युवती…अकेले बिल्कुल अकेले…कुछ भी हो सकता है…नीरा का मन घबरा उठा।

उसने अचानक अनुभव किया कि जिन वर्षा के छींटों को युवक ध्यानपूर्वक देख रहा था वही छींटे उसके भीगे हुए वस्त्रों को और भिगो रहे थे। नीरा ने मुड़कर खिड़की का शीशा चढ़ाने का जतन किया, किन्तु बल लगाने पर भी वह सफल न हो पाई।

‘छोड़िए! मैं चढ़ाए देता हूं।’’ युवक अपनी सीट से उठकर नीरा के पास आया और झट से शीशा चढ़ाकर अपनी सीट पर लौट गया। नीरा बिना कुछ कहे उसे देखती रह गई। उसके मुंह से ‘धन्यवाद’ का शब्द भी न निकला।

अपनी सीट पर बैठा वह नवयुवक अब बाहर नहीं देख रहा था, नीरा को निहारे जा रहा था, शायद वह उसके मुख से मधुर ध्वनि में धन्यवाद सुनने के लिए उत्सुक था या यह सोच रहा था कि यह भीगी हुई रात अधिक सुन्दर थी अथवा वह भीगी हुई गोरी।

कितने ही स्टेशन गुजर गये। गाड़ी हर स्थान पर तनिक रुकी और बढ़ गई, किन्तु नीरा न जाने किन विचारों में डूबी हुई थी। उसे सुध तब आई जब उसने युवक सहयात्री को गाड़ी से उतरते देखा। सहसा उसकी दृष्टि सामने लगे बोर्ड पर पड़ी ‘अरे बान्द्रा’ उसके मुंह से निकला और वह शीघ्र नीचे उतर आई।

जब वह स्टेशन से बाहर निकली तो वर्षा पहले से तेज हो चुकी थी। उसने देखा कि उसका सहयात्री भी बाहर बरामदे में खड़ा जाने की सोच रहा था। वर्षा में उतरने के लिए उसने छाता खोल लिया था। नीरा को देखकर वह क्षण भर के लिए रुक गया, नीरा ने बरामदे के कोने पर खड़ी टैक्सी को पुकारा, किन्तु वर्षा के शोर के कारण शायद टैक्सी ड्राइवर ने उसकी आवाज को सुना नहीं।

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