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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

 

नीरा सिंगार के मेज के सम्मुख खड़ी बालों को संवार रही थी। कमरे में इत्र की भीनी महक बसी हुई थी। कंघी करते हुए उसका मन न जाने कहां-कहां विचरण कर रहा था। अंकल ने स्वयं ही इस अनोखे ब्याह का वर्णन करके उसे चिन्तन में डाल दिया था। द्वारकादास के ये शब्द कहीं जवान बांहों का सहारा पाकर मेरे प्रेम को मत ठुकरा देना। रह-रहकर उसे दुविधा में डाल देते-जवान बाहों का सहारा। वह मुस्कराकर तेजी से बाल संवारने लगी—उसे किसी सहेली के यहां जन्म दिवस के समारोह पर पहुंचना था।

सहसा आहट हुई और नौकर ने आकर सूचना दी—

‘पारस साहब आपसे मिलना चाहते हैं…।’

बाल बांधते हुए नीरा ने पलटकर नौकर को देखा और बोली, ‘उन्हें बिठाओ…मैं अभी आती हूं।’

उसने नौकर को अपने आने का कह तो दिया किन्तु पारस के सम्मुख जाने से उसका मन झिझक रहा था। न जाने क्यों वह अनजाने में एक मानसिक हीनता का भास कर रही थी…पारस इस समय क्यों आया है…क्या विचित्र स्थिति है, अंकल ने और उसने मिलकर इस युवक को वश में करने की युक्ति सोची है…और वह युवक इससे अनभिज्ञ है…नाटक खेला जा रहा है और नायक अनजान है इससे…और यदि वह इस महल को एक ‘न’ से धरती पर गिरा दे तो…यदि वह किसी और से प्रेम करता हो तो…क्या होगा…उसने शीघ्र केशों का जूड़ा बनाया, एक दृष्टि दर्पण पर डाली और हॉल कमरे में पहुंच गई।

पारस सोफे पर बैठा प्रतीक्षा में कुछ सोच रहा था। नीरा को आते देखकर वह अभिवादन के लिए उठा और फोटो का लिफाफा आगे बढ़ा दिया। नीरा ने तस्वीरें निकालीं और वहीं सोफे पर बैठकर ध्यानपूर्वक देखने लगी। तस्वीर एक-से-एक बढ़िया उतरी थी। उसने इससे पहले बम्बई के प्रसिद्ध फोटोग्राफरों से बहुत पैसे देकर कई एक तस्वीर उतरवाई थीं…किन्तु, किसी तस्वीर में यह बात…यह निखार उत्पन्न न हुआ था, उसके मुख पर एक विशेष खिलन थी, जैसी ओस में स्नान किए फूलों पर होती है।

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