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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

सब तस्वीरें देख चुकने के बाद प्रशंसनीय दृष्टि से उसने पारस की ओर देखते हुए कहा—‘मुझे इसका अनुमान न था कि तस्वीरें इतनी सुन्दर उतरेंगी।’

‘तब तो मैं सचमुच प्रशंसा का पात्र हूं कि…।’

नीरा ने बात पूरी न करने दी और बोली—‘अवश्य…आपका हाथ तो प्रशंसा का पात्र है किन्तु एक बात तो आपको भी माननी पड़ेगी।’

‘क्या?’

‘इसमें बहुत हाथ आपके रूप का भी है जिससे कैमरा अन्याय नहीं कर सकता…क्या विचार है आपका…?’

पारस एकटक उसे देखने लगा। निस्सन्देह वह सौन्दर्य की अनुपम मूर्ति थी। इस समय पूर्ण मेकअप के साथ तो वास्तव मंथ किसी विषकन्या से कम न थी।

‘शायद आप इस बात से सहमत नहीं…।’ पारस का कोई उत्तर न मिलने पर कुछ क्षण बाद वह बोली।

‘नहीं तो…।’ वह संभलते हुए बोला—‘जो रूप श्री देखकर मैं अपने आपको खो गया हूं, भला उससे कैमरा क्या अन्याय कर सकता है।’

नीरा को पारस के इस उत्तर की आशा न थी। मन-ही-मन हर्ष की भावना को छिपाते हुए वह फिर उन तस्वीरों को देखने लगी।

‘वह आपकी तस्वीर क्या हुई?’ एकाएक कुछ विचार आने से उसने पूछा।

‘उसे नजर लग गई।’ पारस मुस्कराया।

‘नजर?’

‘जी हां…आपके सौन्दर्य की नजर…साफ हो गई…।’

‘यह नहीं हो सकता…आप झूठ बोल रहे हैं…आप वह तस्वीर मुझे दिखाना नहीं चाहते।’

‘ऐसी बात नहीं, झूठ क्यों बोलूंगा मैं।’

‘यह प्रमाणित करने के लिए कि आप मुझसे अच्छे फोटोग्राफर हैं—वह तस्वीर अवश्य इन सबसे सुन्दर आई है।’

‘तो आप अवश्य देखियेगा उसे?’

‘जी…।’

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