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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

पक्षियों के संगम की वह रात दूर न थी, जब गंगा की व्याकुल दृष्टि मन्दिर की गहमा-गहमी में किसी की मोहनी सूरत को खोज रही थी। वह मन्दिर के कोने-कोने में भटकी, परन्तु मोहन कहीं भी न मिला। लोगों की भीड़ इतनी थी कि सांस घुटा जा रहा था।

तभी मंदिर की सीढ़ियों पर दो कहार एक पालकी लिए रुके। पालकी में से तारामती उतरी। वह भी भगवान् के दर्शनों के लिए मंदिर में आई थी। गंगा उसे देखते ही स्वागत के लिए आगे बढ़ी; किन्तु मंगलू और प्रताप को सामने से आता देखकर झेंप गई और वहीं लोगों की भीड़ में छिप गई। जब भी लोग उसे घूर कर देखते तो वह भयभीत हो जाती। वे पंडाल में चले गये।

कार्यक्रम आरम्भ होने में कुछ समय था। रूपा कृष्ण बनी मंदिर के भीतर अपनी राधा की प्रतीक्षा कर रही थी और गंगा राधा के वेष में अपने श्रृंगार को एक दोशाले में छिपाये बाहर भीड़ में खड़ी मोहन को खोज रही थी। मोहन था कि दिखाई न पड़ रहा था। मोहन ने आज राधा-कृष्ण-नृत्य में बांसुरी बजानी थी और उसी बांसुरी की तान पर राधा बनी गंगा को नृत्य करना था।

ज्यूं-ज्यूं समय बीतता जाता, उसे मोहन पर क्रोध आ रहा था। कहीं उसकी अनुपस्थिति उनके पूरे कार्यक्रम को चौपट न कर दे। आशा निराशा में परिवर्तित हो रही थी। भीड़ को चीरती हुई वह मंदिर की ओर बढ़ी। एकाएक उसका पैर किसी से टकराया और वह चौंक पड़ी। क्षमा मांगने के लिए उसने ध्यानपूर्वक उस व्यक्ति को देखा और फिर दृष्टि झुका ली। वह मोहन ही था जो स्वयं तेजी से भीड़ को काटता हुआ उसकी ओर बढ़ा आ रहा था। मोहन से भेंट होते ही गंगा का क्रोध समाप्त हो गया और दांतों से उंगली काटती हुई वह वहीं खड़ी रह गई। मोहन ने उसका हाथ थामा और एक ओर ले जाकर धीरे से बोला-

''आज क्या नृत्य नहीं होगा?''

''होगा...'' गंगा ने तनिक पलकें उठाते हुए उत्तर दिया।

''तो तुम यहां भीड़ में क्या कर रही हो?''

''कुछ नहीं...''

''झूठ...'' मोहन के इस शव्द पर गंगा ने मुस्कराकर उसकी ओर देखा।

दृष्टि में शब्दों का समर्थन था।

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