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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

''क्या करूँ हुजूर! यह पेट विवश किये देता है।''

''चलो हम इस बात को मान लेते हैं... तुम्हारी इस धमकी पर सिर झुका देते हैं।'' प्रताप सहसा नम्र होते हुए बोला; ''हम अब तुम से डरने लगे हैं बंसी।''

''ऐसा न कहिये सरकार!''

''सत्य से कहां तक मुंह छिपाया जा सकता है... आज हम तुम्हारी इस धमकी को न मानें तो कल तुम हमें बदनाम भी कर सकते हो... हमारा एक पाप जो तुम्हें मालूम है... उस रात वाला...''

''मुझे इतना नीच न समझिये मालिक!''

''तुम्हें तो नहीं... पर तुम्हारे पेट का क्या भरोसा, जाने कब मुंह खुलवा दे। अब तुम जा सकते हो, कल से तनिक ध्यान से काम करना।''

बंसी की समझ में न आया। अपना उदास मुंह झुकाये वह बाहर आ गया। पेट के लिए उसे आज ऐसे व्यक्ति की दासता स्वीकार करनी पड़ रही थी, जो प्रत्येक बात पर उसका अपमान करता है... उससे घृणा करता है। उसका अपना वश चलता तो ऐसी कमाई पर वह थूकता भी नहीं; किन्तु उसे तो आजीविका चाहिये छोटे-छोटे बच्चों के लिए... जवान बेटी के लिए। यह नौकरी अपमानजनक सही, परन्तु इसे ठुकरा देने का उसमें बल न था। निर्धनता मानव को कितना निर्बल बना देती है।

बंसी के चले जाने के बाद प्रताप बड़ी देर तक सोच में खोया रहा। फिर उठा और साथ वाले कमरे से मंगलू को बुलाकर बोला, ''यह आदमी हमारे लिए बड़ा खतरनाक सिद्ध हो सकता है...''

''घबराइये नहीं हजूर, मैं उड़ने वाले पंखों को काटना जानता हूँ।''

प्रताप ने विश्वासपूर्ण दृष्टि से मँगलू की ओर देखा। इस दृष्टि में एक रहस्य-भरा संकेत था, जिसे मंगलू ने समझा और झट से बाहर चला गया। बँगले में एक गहन निस्तब्धता थी, जिसे तारामती का मधुर स्वर भंग कर देता था। वह कभी कभार गुनगुना उठती।

''जिसको राखे साइयां, मार न सके कोय...''

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