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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

हवा के बन्द होने से घाटी में कुछ घुटन-सी थी। बंसी सिर झुकाये गांव की ओर चला जा रहा था। प्रताप के इस व्यवहार ने उसका हृदय छलनी कर दिया था। चिन्ताओं का एक जाल-सा उसके मस्तिष्क को घेरे हुए था। सांझ घनी होने के कारण आसपास की काली घटायें एक भयानक अजगर का रूप धारण किये थीं? बंसी अपने विचारों में खोया वातावरण से अनजान चला जा रहा था। वह इस बात से अनभिज्ञ था कि इन्हीं चट्टानों की ओट में उसका जीवन-बैरी मंगलू भी छिपता-छिपता चला आ रहा था। अपने स्वामी को प्रसन्न करने के लिए, चांदी के कुछ टुकड़ों के वदले वह बंसी के प्राण लेने को तैयार हो गया था।

दूर बारूद से भारी-भरकम चट्टानें चटक रही थीं। लुढ़कते हुए पत्थरों से घाटी गूंज रही थी। शताब्दियों पुरानी चट्टानें, जो आंधी और तूफानों में भी अटल रहीं, साधारण से बारूद के, पलीतों से चकनाचूर हो रही थीं। बंसी सोचने लगा क्या कोई ऐसी चिंगारी नहीं जो युगों पुरानी निर्धनता का विनाश कर सके...कोई ऐसा साधन जिससे गरीब अपने घाव दिखा सकें, अपनी व्यथा सुना सकें। न जाने उनकी अपमानपूर्ण दशा देखकर भगवान का हृदय भी क्यों नहीं पसीजता! जब उनकी बहू-बेटियों का सतीत्व चंद सिक्कों में बिक जाता है तो क्यों नहीं गंगा और सरस्वती जैसी देवियां लाज से अपना मुंह छिपा लेतीं...इन्हीं बिचारों में डूबा वह पगडंडी पर बढ़ा चला जा रहा था।

मंगलू ने बंसी को सिर झुकाये संकीर्ण पगडंडी पर चलते देखा। वह इसी अवसर की ताक में था। बारूद के धुएँ और, टूटते पत्थरों की धूल से आकाक्ष घना हो रहा था। मंगलू ने सावधानी से दाएं-बांए देखा और झट उस टट्टान को बारूद को आग दिखा दी जिसे आधी रात के बाद फटना था। पलीते को सुलगा कर वह तेजी से पलट कर भाग निकला।

बंसी अभी घाटी से बाहर न हो पाया था कि जोर का धमाका हुआ और उसके ऊपर झुका हुआ पहाड फटा। प्राण बचाने के सिए बंसी अपने निर्बल शरीर को लिए तेजी से भागा, किन्तु लुढ़कते हुए पत्थरों ने उसे बच निकलने का अवसर न दिया और एक बोझल पत्थर ने उसे अपनी लपेट में ले लिया। घाटी में एक भयानक चीख उभरी और दब गई।

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