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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

गाडी में बैठा युवक कोई सभ्य पुरुष जान पड़ता था। वह गाड़ी से उतरा और बिना गंगा से कोई प्रश्न किये कोचवान की सहायता से उसने गंगा और दोनों बच्चों को गाड़ी में बिठा लिया। शरत् का सिर अपनी गोद में लेकर गंगा सामने की सीट पर बैठ गई। कोचवान ने बागें ढीली छोड दीं।

''रामू! शीघ्र घर ले चलो... '' फिटन की चाल को धीमी देखकर भीतर बैठे युवक ने कोचवान को पुकारा।

'घर' का शब्द सुन-कर गंगा किसी डर से ठिठकी और सामने बैठे युवक की ओर देखने लगी... वह डर गई कि न जाने किस आशय से ऐसे में यह व्यक्ति उसे घर लिए जा रहा था। युवक ने शायद गंगा के मन की बात अनुभव कर ली। यह बोला- ''चिन्ता मत करो.. मैं स्वयं डाक्टर ह्रूं... अभी-अभी एक रोगी को देखकर घर लौटा रहा हूं...''

डाक्टर का शब्द सुनकर गंगा के मन का संशय जाता रहा और उसने कृतज्ञ दृष्टि से युवक डाक्टर को देखा। डाक्टर ने अपना बड़ा कोट उतार कर शरत् को ढक दिया।

फिटन शहर से बाहर एक खुले मकान के अहाते में आकर रुक गई। डाक्टर ने सहारा देकर शरत् को नीचे उतारा और उन्हें लिए हुए भीतर आया। गंगा डरते-डरते उसके पीछे आई और एक बडे कमरे में प्रवेश करते ही ठिठककर देहली के पास ही रुक गई। कमरे की सजावट देखकर उसे अनायास ही भय लगने लगा... ऐसा ही ठाठ, ठेकेदार प्रताप के बँगले पर भी था... वह सोचने लगी, क्या यह सभी अमीर व्यक्ति एक ही समान होते हैं.. मन के काले...

उसे वहीं रुकते हुए देखकर युवक मुस्कराया और बोला-''घबराओ नहीं... मेरा दवाखाना भी यहीं है... बच्चे को इस बिस्तर पर लिटा दो मैं अभी देखता हूँ... सब ठीक हो जायेगा।''

यह कहकर वह स्वयं भीतर दूसरे कमरे में चला गया। भीतर धीमा प्रकाश था। प्रवेश करते ही उसने धीरे से पुकारा-''रूपा। सो गई क्या? मुझे कुछ देर हो गई... ''

रूपा पति की बाट जोहते-जोहते थककर सो गई थी। वह सजी हुई नर्म शय्या पर उठकर सिमट-सी गई और आंचल को संवारने लगी। डाक्टर ने क्षण-भर अपनी दुल्हन की आंखों में छिपा प्रेम-सन्देश सुना और फिर बोला- ''मैं अकेला नहीं आया... ''

''कौन है साथ...'' रूपा ने धीरे से पूछा।

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