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मेरा जीवन तथा ध्येय

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9588

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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान


वहाँ सारे देश में तुमको धार्मिक क्रियाशीलता का बाहुल्य दिखाई पड़ेगा। मुझे ऐसा एक भी वर्ष स्मरण नहीं, जब कि भारत में अनेक नवीन सम्प्रदाय उत्पन्न न हुये हों। जितनी ही उद्दाम धारा होगी, उतने ही उसमें भँवर और चक्र उत्पन्न होंगे – यह स्वाभाविक है। इन सम्प्रदायों को क्षय का सूचक नहीं समझा जा सकता, वे जीवन के चिन्ह हैं। होने दो इन सम्प्रदायों की संख्या में वृद्धि – इतनी वृद्धि कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति ही एक सम्प्रदाय हो जाए, हर एक व्यक्ति। इस विषय को लेकर कलह करने की आवश्यकता ही क्या है?

अब तुम अपने देश को ही लो। (किसी आलोचना की दृष्टि से नहीं।) यहाँ के सामाजिक कानून, यहाँ की राजनीतिक संस्थाएँ, यहाँ की हर एक चीज का निर्माण इसी दृष्टि से हुआ है कि मानव की लौकिक यात्रा सरलतापूर्वक सम्पन्न हो जाए। जब तक वह जीवित है, तबतक सुखपूर्वक जीवन-यापन करे। अपने राजमार्गों की ओर देखो, कितने स्वच्छ हैं वे सब। तुम्हारे सौन्दर्यशाली नगर और इसके अतिरिक्त वे तमाम साधन, जिनसे धन को निरन्तर द्वगुणित किया जाता है। जीवन के सुखोपभोग करने के कितने ही रास्ते। पर यदि तुम्हारे देश में कोई व्यक्ति इस वृक्ष के नीचे बैठ जाए और कहने लगे कि मैं तो यहीं पर आसन मारकर ध्यान लगाऊँगा, काम नहीं करूँगा, तो उसे कारागृह जाना होगा। देखा तुमने? उसके लिए जीवन में कोई अवसर नहीं। मनुष्य तभी इस समाज में रह सकता है, जबकि वह समाज की पाँत में एकरस होकर काम किया करे। प्रस्तुत जीवन में आनन्दोपभोग की इस घुड़दौड़ में हरएक आदमी को शामिल होना पड़ता है, अन्यथा वह मर जाता है।

अब हम जरा भारत की ओर चलें। वहाँ यदि कोई व्यक्ति कहे कि मैं उस पर्वत की चोटी पर जाकर बैठना और अपने शेष जीवन भर अपनी नाक की नोक देखते रहना चाहता हूँ, तो हर आदमी यही कहता है, ‘जाओ, शुभमस्तु’ उसे कुछ कहने की जरूरत नहीं । किसी ने उसे कपड़ा ला दिया और वह सन्तुष्ट हो गया। पर यदि कोई व्यक्ति आकर कहे कि देखो, मैं इस जिन्दगी सब ऐशो-आराम लूटना जाहता हूँ, तो शायद उसके लिए सब द्वार बन्द ही मिलेंगे।

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