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मेरा जीवन तथा ध्येय

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9588

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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान


मेरा कहना है कि दोनों देशों की धारणाएँ भ्रमात्मक हैं। मुझे कोई कारण नहीं दिखता कि कोई व्यक्ति यहाँ आसन लगाकर त्राटक बाँधे तब तक क्यों न बैठा रहे, जब तक कि उसकी इच्छा हो। क्यों वह भी वही करता रहे, जो अधिकांश जनसमुदाय किया करता है? मुझे तो कोई उचित कारण नहीं दिखाई देता।

उसी प्रकार मैं यह नहीं समझ पाता कि भारत में क्यों मानव इस जीवन की सामग्रियाँ न पाये, क्यों धनोपार्जन न करे। लेकिन, तुम जानते हो, वहाँ से करोड़ों को इसके विरुद्ध दृष्टिकोण को स्वीकार करने के लिए आतंकित कर विवश किया जाता है। वहाँ के ऋषियों की यह निरंकुशता है। यह निरंकुशता है महात्माओं की, यह निरंकुशता है आध्यात्मवादियों की, यह निरंकुशता है बुद्धिवादियों की, यह निरंकुशता है ज्ञानियों की। और ज्ञानियों की निरंकुशता, याद रखो, अज्ञानियों की निरंकुशता से अधिक प्रबल होती है। जब पंडित और ज्ञानवान अपने मतों को औरों पर लादना प्रारम्भ कर देते हैं, तो वे बाधाओं और वन्धनों को रखने के ऐसे लाखों उपाय सोच लेते हैं, जिनको तोड़ने की शक्ति अज्ञानियों में नहीं होती।

मैं अब यह कहना चाहता हूँ कि इसे एकदम रोक दिया जाये। लाखों-करोड़ों का होम करके एक बड़ा आध्यात्मिक दिग्गज पैदा किया जाने का कोई अर्थ नहीं है। यदि हम ऐसा समाज निर्माण करें, जिसमें एक ऐसा आध्यात्मिक दिग्गज भी हो और सारे अन्य लोग भी सुखी हों, तो यह ठीक है। पर अगर करोड़ों को पीसकर एक ऐसा दिग्गज बनाया गया, तो यह अन्याय है। अधिक उचित तो यह होगा कि सारे संसार के परित्राण के लिए एक व्यक्ति कष्ट झेले।

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