उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
नारद ने बताया, ‘‘इन्द्रराज! आज से बीस वर्ष पूर्व जब घनाध्यक्ष ने बिना युद्ध के लंका रावण के हाथ में दे दी थी तो ब्रह्मा ने एक योजना निर्माण की थी। उस योजना में अश्विनी कुमारों से सहायता ली गयी थी।
‘‘राजा दशरथ कोशल नरेश ने पुत्रेष्टि-यज्ञ किया था। वह पचपन वर्ष का हो गया था। तब उसकी सबसे छोटी रानी भी चालीस वर्ष की थी। उसकी तीनों रानियों में किसी के घर भी सन्तान नहीं थी। ‘‘महर्षि श्रृंगी ने यज्ञ कराया था। उस यज्ञ में अश्विनी कुमारो नें यहाँ से एक पाक बना कर राजा के यज्ञ में भेजा था और राजा दशरत ने अपनी पत्नियों को खाने को दिया था।
‘‘बड़ी रानी पचास वर्ष के ऊपर की आयु की थी। उसके गर्भ से एक अति तेजस्वी पुत्र का जन्म हुआ था। दूसरी रानी सुमित्रा के दो पुत्र हुए थे और तीसरी रानी के भी एक पुत्र हुआ था।
‘‘चारों भाई दैवी गुणों से सम्पन्न और राक्षसों से युद्ध करने में समर्थ हैं। परन्तु उनके पास अभी तक न तो दिव्यास्त्र हैं और न ही उनमें उन दिव्यास्त्रों के प्रयोग की योग्यता है।
नारद ने आगे बताया, ‘‘मैंने पितामह को उनकी योजना स्मरण करायी तो वह कहने लगे कि राजा दशरथ-का बड़ा लड़का राम रावण को पराजित कर सकेगा। अतः उसे शस्त्रास्त्र प्रयोग करने का ढंग सिखाने का प्रबन्ध करना चाहिये।
‘‘इस समय गंगा के दक्षिण की ओर विन्ध्याचल की तलहटी के वन में राजर्षि विश्वामित्र तपस्या कर रहे हैं। उनके पास बहुत-से दिव्यास्त्र है। उनके पास मैं जा रहा हूँ और ऋषिजी को उन अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग का ढंग राम को बता देने का आग्रह करूँगा।
‘‘परन्तु मेरा अनुमान है कि रावण को परास्त करने के लिये विश्वामित्र के अस्त्र-शस्त्रों से काम नहीं चलेगा। इसमें आप भी कुछ सहायता कर दें।’’
इन्द्र ने कहा, ‘‘बात यह है कि ब्रह्मा के सम्मुख मेरी रावण से सन्धि हो चुकी है। हम मित्र हैं। इस कारण मैं रावण का विरोध प्रत्यक्ष रूप से नहीं कर सकता।’’
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