उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘बात तो ठीक है। युद्ध के समय मरने-जीने की बाजी तो सेना के अधिकारियों ने ही लगानी है और हम उनके हाथों में घटिया साधन देंगे तो अपने ही सैनिकों की हत्या और फिर देश की पराजय के लिये उत्तरदायी होंगे।’’
‘‘मैं समझता हूँ कि हमें इंगलैण्ड वापस चला जाना चाहिये। हमें स्पष्ट लिख देना चाहिये कि ‘मिराज़’ घटिया जहाज़ है।’’
‘‘और अमेरिकन ‘सैबर’ को कैसा समझते हो?’’
‘‘मेरे विचार में तो वह भी ‘नैट’ की तुलना में घटिया है।’’
दोनों पैरिस के एक होटल में ठहरे हुए थे और फ्रांस, अमेरिकन और इंगलैण्ड के जहाज बनाने वाली कम्पनियों से बातचीत कर रहे थे।
बातचीत होटल के रिसैप्शन-रूम में चाय लेते समय हो रही थी। दोनों साथी विचार कर रहे थे कि किस प्रकार अपनी सम्मति लिखकर भेजें कि डिफेंस कमेटी वालों के लिये इनकार करने को स्थान ही न रहे?
कुलवन्त ने कहा, ‘‘मैं आज रात यहाँ की रिपोर्ट ड्राफ्त कर तुम्हें दिखाऊँगा। तुम...।
वह आगे बात कर नहीं सका। उसने आँखें मूँदी हुई थीं कि किसी ने उसे आवाज दी, ‘‘ब्रदर कुलवन्त।’’
कुलवन्त ने आँखें खोल देखा। सूसन उसके सामने खड़ी थी। कुलवन्त ने उठ उससे हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘सिस्टर! कहाँ घूम रही हो?’’
‘‘आपके मित्र ने बहुत तंग कर रखा है।’’
‘‘ओह! कहाँ है वह?’’
‘‘तो आप नहीं जानते?’’
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