उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘देखो, अमृत! मनोरंजन-तो मनोरंजन ही होता है। हाँ, उसके ढंग भिन्न-भिन्न होते हैं। तुम लुईसी का मनोरंजन करते हो और मेरा भी। इस पर भी दोनों मनोरंजन में अन्तर है। इसी से मैं कहता हूँ कि सूसन किस-किस का मनोरंजन किस-किस प्रकार करती है, यह देखना है।’’
‘‘कुलवन्त! मैं उससे ऊब गया हूँ।’’
‘‘और इससे कब ऊबोगे?’’
‘‘अभी कैसे कह सकता हूँ? अभी तो वह तरोताजा प्रतीत होती है।’’
‘‘देखो, अमृत! यह खेल अति भयंकर है।’’
‘‘यहाँ तो यह खेल बहुत प्रचलित है।’’
‘‘देख लो। एक समय ऐसा आने वाला है कि जब तुमसे भी कोई ऊब सकता है।’’
‘‘तो वह मुझे छोड़कर जा सकता है। मुझे उस पर गिला नहीं होगा।’’
‘‘मेरी सम्मति मानो। मैं तुम्हारी सुलह दीदी से भी करा सकता हूँ और सूसन से भी।’’
‘‘महिमा को तुम इन दोनों की तुलना में कैसा समझते हो?’’
‘‘दोनों से श्रेष्ठ। तुम उसके विषय में इतना भी नहीं कह सकते कि वह किसी का मनोरंजन करती रही है।’’
‘‘वह श्रेष्ठता का लक्षण तो हो सकता है, परन्तु सौन्दर्य और मनोरंजन करने की सामर्थ्य का नहीं।’’
‘‘इस गन्दे पानी को यदि मनोरंजन समझते हो अथवा चमड़ी के श्वेत रंग को सौन्दर्य समझते हो तो मुझे तुम्हारी बुद्धि पर विस्मय होता है।’’
‘‘और तुम सौन्दर्य किस बात में समझते हो?’’
‘‘मनुष्य के शरीर के अंग-प्रत्यंग का सन्तुलन ठीक होना शारीरिक सौन्दर्य है। मन और बुद्धि का ठीक कार्य करना मानसिक सौन्दर्य के लक्षण हैं और सबके हित में कार्य करने को आत्मा का मैं सौन्दर्य मानता हूँ। इन तीनों के समन्वय को सौन्दर्य की पूर्णता समझता हूँ।
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