उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
अब कुलवन्त ने कहा, ‘‘मिसेज लुईसी! यदि कोई अन्य प्रबन्ध न हो तो रात का डिनर मेरे साथ इण्टर कौन्टिनेण्टल में साढ़े-आठ बजे लें तो मैं कृतज्ञ रहूँगा।’’
‘‘तब तो मैं साढ़े-आठ बजे वहाँ ही पहुँच जाऊँगी।’’
इस प्रकार कुलवन्त को अमृत से बातचीत करने का पूरा दिन मिल गया। प्लाज़ा डीनोवो में नाश्ता कर लुईसी अपनी सहेली के घर चली गयी और दोनों मित्र अण्डर-ग्राउण्ड रेलवे मे ‘चैम्पस इलिसीस’ के बाग में जा पहुँचे। वहाँ एक एकान्त स्थान पर घास के लान में बैठ अमृत ने पूछा, ‘‘कैसी लगी है यह लुईसी?’’
‘‘उतनी अच्छी नहीं जितनी कि सूसन है।’’
‘‘हाँ! बच्चा होने से पहले वह अधिक सुन्दर थी, परन्तु प्रसव के उपरान्त तो वह सर्वथा असुन्दर हो गयी है।’’
‘‘मेरा तुमसे मतभेद है।’’
‘कब देखा है तुमने उसे?’’
‘‘मैं कल दिन-भर लियौन मे उसके घर रहा हूँ।’’
‘‘ओह! तो उसने प्रेम प्रकट नहीं किया?’’
‘‘वह मुझे ब्रदर कहती है और मैं उसे सिस्टर मानता हूँ। तब वह मुझसे ऐसी बात कैसे कर सकती थी?’’
‘‘परन्तु वह तो हरजाई है।’’
‘‘पर उसका बच्चा तो सर्वथा तुम्हारी प्रतिलिपि है।’’
‘‘हाँ। परन्तु मैंने उसे कई लोगों का मनोरंजन करते देखा है।’’
‘‘और इस समय तुम मेरा मनोरंजन कर रहे हो।’’
अमृत हँस पड़ा। हँसते हुए बोला, ‘‘परन्तु कुलवन्त! मैं पुरुष हूँ, नारी नहीं हूँ। पुरुष और नारी के मनोरंजन में अन्तर है।’’
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