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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


‘‘मैं भारत से आया हूँ और अमृत का मित्र हूँ।’’

‘‘आइये।’’ वह कुलवन्त को सिटिंग-रूम में बैठा अमृत को जगाने चली गयी।

पाँच मिनट में अमृत और उसकी प्रेमिका बाहर आये। अमृत कुलवन्त से गले मिला और उसके उपरान्त उसने लुईसी किस्टर से परिचय कराया।

कुलवन्त ने बताया, ‘‘मैं अपनी सरकार के काम से यहाँ आया हुआ हूँ। आये तो कई दिन हो चुके हैं, परन्तु मेरे साथ अपने विभाग के मिस्टर यशवन्तराय वोपत भी हैं। इस कारण उसके साथ रहते हुए यहाँ आकर मिल नहीं सका। आज मैं उससे अवकाश पा सका हूँ। इससे तुम्हें मिलने चला आया हूँ।’’

अमृत ने कुछ बात करने से पूर्व पूछ लिया, ‘‘अल्पाहार लेकर आये हो अथवा नहीं?’’

‘‘अल्पाहार ले चुका हूँ।’’

‘‘मैं तो रात बहुत देर से ड्यूटी से लौटा था। इस कारण अभी तक सो रहा था। यदि तुम जल्दी में नहीं तो हम आधे घण्टे में खाली हो जायेंगे और तब हम दिन-भर तुम्हारे साथ व्यतीत करेंगे।’’

‘‘यह ठीक है। मुझे तुम आज का समाचार-पत्र दे दो तो मैं बैठ कर पढ़ूँगा और तुम नित्य-कर्म से निवृत्त हो जाओगे।’’

अमृत फ्लैट के बाहर जा डाक के डिब्बे में से उस दिन का समाचार-पत्र निकाल कर ले आया। वह उसने कुलवन्त को देते हुए पूछ लिया, ‘‘फ्रांसीसी समझ सकोगे क्या?’’

‘‘हाँ! मैं बहुत अच्छी तरह इसे पढ़ और समझ सकता हूँ।’’

‘‘तो तुम पढ़ो। आओ, लुईसी! हम शीघ्र तैयार हो जायें।

तदन्तर इनके साथ भ्रमण करेगें।’’

अमृत की साथिन ने कह दिया, ‘‘पर मैं तो अपनी सहेली के घर जा रही हूँ।’’

‘‘ओह! याद आ गया है। तो वहाँ से किस समय लौटोगी?’’

‘‘मैं समझती हूँ कि हम ब्रेक फास्ट तो प्लाजा डीनोवो में लेंगे। आपके मित्र चाहें तो उसी समय लंच ले सकेंगे। वहाँ से मैं अपनी सहेली से मिलने चली जाऊँगी। रात डिनर से पहले घर पर आपको मिलूँगी।’’

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