उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
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दिन-भर वे घूमते रहे। सायं की चाय उन्होंने पुनः एक रैस्टोराँ में ली और रात को आठ बजे वे होटल इण्टर कौण्टिनेण्टल में जा पहुँचे। कुलवन्त समझ रहा था कि वह अहल्या-उद्धार का-सा कार्य करने लगा था, परन्तु वह उसमें सफल नहीं हुआ। इससे वह समझ गया कि राम के कथन में अवश्य कुछ गुण रहा होगा, जिससे गौतम जैसा विद्वान् व्यक्ति बालक राम की बात मान गया था।
अपने को वैसा चमत्कार करने के अयोग्य समझ वह गम्भीर भाव बनाये हुए था। खाने के समय से आधा घण्टा पूर्व वे होटल में आये थे। वह अमृत को अपने कमरे में ले गया। वहाँ पहुँच अमृत ने विस्मय से पूछा, ‘‘यह कमरा तो डबल-सीटर है। और कौन यहाँ आने वाला है?’’
‘‘मिस्टर वोपत आज प्रातः ही गया है। मैंने अभी कमरा बदला नहीं, परन्तु मैनेजर से मैंने कह दिया है कि एक आदमी के खाने का ही दूँगा। वह मान गया है।’’
‘‘परन्तु कमरे का तो डबल पड़ेगा?’’
‘‘डबल नहीं, ड्योढ़ा भाड़ा होगा। मुझे इसमें लाभ यह है कि यदि वोपत मेरे यहाँ रहते ही लौट आया तो पुनः हम एक ही कमरे में रह सकेंगे।’’
अमृत ने बात बदल दी। उसकी दृष्टि मेज पर रखी गरिमा के चित्र पर चली गयी। अमृत ने मुस्कराते हुए पूछ लिया, ‘तो तुम गरिमा का चित्र साथ-साथ लिये घूमते हो?’’
‘‘हाँ। और जहाँ मैं रात सोता हूँ, इसे सामने रखने से मुझे स्मरण रहता है कि मैंने इससे विवाह के समय कुछ वचन दिये हुए है।
मैं उन वचनों को स्मरण कर अपने को स्वस्थ-चित्त रख सकता हूँ।’’
अमृत मुस्कराया और चुप कर रहा। यह देख कुलवन्त ने पुनः कहा, ‘‘गरिमा सत्यवक्ता है और उसके तथा मेरे भीतर किसी बात का लुकाव-छुपाव नहीं। इससे मैं सदा ध्यान रखता हूँ कि कोई ऐसी बात न कर दूँ जिससे कि मुझे उसके सामने आँखें झुकानी पड़े।’’
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