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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


‘‘परन्तु क्या वह भी ऐसा ही विचार रखती है?’’

‘‘हाँ। मुझे विश्वास है।’’

इस पर अमृत ने कुछ विचार कर कह दिया, ‘‘मैं समझता हूँ कि वह आपसे लुकाव-छुपाव अवश्य रखती है। किसी स्त्री के मन के भाव एक पारे की बूँद की भाँति होते हैं। वह उनको स्वयं ही नहीं समझ सकती तो वह बताती क्या होगी?’’

‘‘देखो, अमृत! मुझे उसने तुम्हारे साथ सम्बन्ध की बात बता दी थी, मैं स्वयं चकित था कि उसने वह क्यों बतायी है। उसने मुझे बताया कि उसने तुम्हारे बाबा के समक्ष सौगन्धपूर्वक यह माना है कि वह अपनी भूल का प्रायश्चित्त करेगी। वह अपने दोष मुझे बता कर प्रायश्चित्त कर रही थी।

‘‘उसने यह भी बताया था कि यदि वह प्रायश्चित्त पूर्ण नहीं करती तो जीवन-भर उसे मन में क्लेश होता रहता।

‘‘मैंने उसे पूछा था, कि तुम्हें भय नहीं लग रहा कि में तुम्हारा त्याग भी कर सकता हूँ?

‘‘उसका कहना था कि वह अपने चित्त की शान्ति के लिये प्रायश्चित्त कर रही है। यदि मैं उसकी इस ईमानदारी पर उसे दण्ड दूँगा तो वह समझेगी कि उसका प्रायश्चित्त अभी पूर्ण नहीं हुआ और सहर्ष वह उस दण्ड का भोग करेगी।

‘‘‘मैंने उसे कहा कि उसने मुझे यह बताकर मेरे मन में अशान्ति उत्पन्न कर दी है। इस पर उसका कहना था कि वह अशान्ति अस्थायी होगी। यदि मैं उसकी निष्ठा को देखूँगा तो अशान्ति मिट जायेगी।

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