उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
|
352 पाठक हैं |
भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘अमृत! मैं उस समय तो इस फिलॉसोफी को नहीं समझा था। परन्तु मैं स्त्री की संगत का भूखा था; इस कारण मेरा उससे सम्बन्ध चलता रहा। दो बच्चे भी हो गये। अब तीसरे की तैयारी है। तीन वर्ष हुए जब तुम मेरे अधीन कार्य करने दिल्ली में आये थे तो मुझे तुम्हारे बाबा द्वारा कही और महिमा द्वारा लिखी कथा पढ़ने को मिली। मै अब गरिमा की महानता को समझ पाया हूँ। मैं समझ गया हूँ कि उसने भूल की थी, पाप नहीं किया था। ऐसी भूल कोई भी कर सकता है और भूल का प्रतिकार प्रायश्चित्त होता है।
‘‘अब तीसरे बच्चे के जन्म पर मैंने उसे कहा था, पहले दो बच्चे मैंने वासनाभिभूत ही उत्पन्न किये हैं, परन्तु यह तीसरी उसकी श्रद्धा और भक्ति का प्रतीक है।
‘‘वह मेरे कथन का अर्थ नहीं समझी थी। मैंने बताया कि बाबा ने अपनी कथा में बताया है कि अहल्या से भी भूल हुई थी। उसने इन्द्र से सहवास पर तृप्ति अनुभव की थी, परन्तु जब उसके पति ने उसे बताया कि उसने यह अपने विवाह-सम्बन्धी वचन को भंग किया है तो वह समझ गयी थी। उसने भी प्रायश्चित्त किया था और उसके निमित्त पति से व्यक्ता होकर सन्तोष तथा धैर्य से अपने उद्धार की प्रतीक्षा की थी।
‘‘उसकी कथा और गरिमा की कथा में यह अन्तर आ गया है कि गौतम त्रेता युग का व्यक्ति था। वह स्वयं सर्वथा संयम का जीवन व्यतीत करता हुआ अपनी पत्नी को भूल ही गया था। परन्तु मैं तो कलयुगी जीव हूँ और मैं संयम से रह नहीं सका और उसको भूल नहीं सका। उसे स्मरण कराने के लिये राम जैसे प्रतिष्ठित नेता की आवश्यकता पड़ी थी। मुझे बाबा की कथा ने ही उसकी तपस्या का रहस्य बता दिया है। मैंने जब से बाबा की कथा पढ़ी है, समझ गया हूँ कि मनुष्य की महानता क्षमा में ही है। प्रायश्चित और पश्चात्ताप करने वालों को क्षमा करना धर्म का पालन ही है।
‘‘और अमृत! जानते हो कि उसने क्या किया था?’’
‘‘क्या किया था?’’
|