उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘यही कि मेरे चरण-स्पर्श कर मेरा धन्यवाद किया और कहा कि अब वह कृत्य-कृत्य हो गयी है।
‘‘तबसे मैं उसके चित्र को अपने सामने रखता हूँ। हमारे जीवन में अनेक बार फिसलने वाले समागम आते हैं। मैं ऐसे समागमों के आने पर भी फिसलता नहीं।’’
अमृत मुख देखता रह गया। वह समझा था कि कुलवन्त गरिमा के उसके साथ सम्बन्ध रखने की बात को जानता नहीं। अब यह देख उसे आश्चर्य हुआ कि वह पूर्ण कथा को जानता है और उसे जानकर भी पत्नी के निष्ठावान होने से सन्तुष्ट है।
इस समय भोजन का समय हो गया। ये दोनों उठकर नीचे की मंजिल पर रिसैप्शन हाल में आ गये।
वहाँ पहुँच उन्होंने देखा कि लुईसी अभी नहीं आयी। ये एक कोने में एक स्थान पर बैठ उसकी प्रतीक्षा करने लगे। समय व्यतीत होता गया। अब अमृत अपने मनोभावों को बताने में निस्संकोच हो गया। उसने कहा, ‘‘मेरी शिक्षा-दीक्षा जीवन को सर्वोपरि समझने वालों में हुई है। मैं जो कुछ भी जीवन की श्रेष्ठ उपलब्धि सम्मुख आये, उसको प्राप्त करने से अपने सुख के अतिरिक्त अन्य कोई कारण नहीं मानता। ऐसी मनःस्थिति में मुझे एक पुस्तक-विक्रेता की दुकान पर महिमा मिल गयी। वह मुझे प्राप्त करने योग्य समझ आयी। मैं उसे सहज ही पा गया और लगभग डेढ़ वर्ष तक मैंने उसका जी भर कर भोग किया।
‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि वह मुझसे ऊब गयी थी और मुझे विवश करने लगी कि मैं अपने माता-पिता से मिलने चलूँ। यदि इससे पहले मैंने गरिमा को न देखा होता और उसे महिमा से श्रेष्ठ समझ उसे प्राप्त करने का असफल प्रयत्न न किया होता तो कदाचित् मैं लम्बी छुट्टी लेकर घर बिलासपुर न जाता। यह देख मुझे विस्मय हुआ कि गरिमा भी मुझसे मिलने के लिये उत्सुक है। बस फिर क्या था।
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