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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


‘‘दो रात-भर वह मेरे साथ रही। संयोगवश उन दिनों बाबा राम-कथा सुनाने लगे और उस कथा में दोनों बहने रुचि लेने लगीं। परिणाम यह हुआ कि दोनों बहनें ही मुझसे नाराज़ हो गयीं। मैं उनको छोड़ कश्मीर चला गया।

‘‘कश्मीर जाकर मैंने गरिमा को घर से भाग आने के लिये लिखा परन्तु वह नहीं आयी और मुझे एक अन्य वहाँ मिल गयी। मैं उसे लेकर चण्डीगढ़ अपने काम पर जा पहुँचा। वह लड़की एक सामान्य क्लर्क की पुत्री थी। वह जब यह जान गयी कि मैं वेतन से अधिक घूस से पैदा करता हूँ तो उसने मुझे कहा कि शीघ्र ही मुझे कुछ स्वतन्त्र कार्य करने के लिये पूँजी एकत्रित करनी चाहिये। इस संकेत पर मैं व्यय कम हो और आय अधिक करने लगा। इस व्यय कम करने में मैंने रिश्वत में से अपने साथियों और अधीनस्थ का भाग देना कम कर दिया और रुपया मेरी तिजोरी में एकत्रित होने लगा। यह बात मेरे साथियो को पसन्द नहीं आयी और उन्होंने षड्यन्त्र कर मुझे रंगे-हाथ पकड़वा दिया। मैं पकड़ा गया। मेरी तलाशी हुई और पकड़ लिया गया। पचास हज़ार की ज़मानत माँगी गयी। इसके लिये कोई तैयार नहीं हुआ। परिणाम यह हुआ कि मुझे दो वर्ष का कठोर दण्ड हो गया।

‘‘दण्ड भोगने के उपरान्त मैं अपनी अविवाहित पत्नी सुमन को मिलने कश्मीर गया तो पता चला कि उसके लड़का हुआ था। उसका तो गला घोंट कर उसने झील में फेंक दिया था और स्वयं एक कश्मीरी मुसलमान से विवाह कर लिया था। इस पर मुझे क्रोध आ गया। उस कश्मीरी से बदला लेने के लिये मैं कुछ गुण्डों की मण्डली में सम्मिलित हो गया। मैं मुसलमान बन गया और अपने साथियों को सुमन के पति के पीछे लगा दिया। वह एक झगड़े में मारा गया और उसकी हत्या को छुपाने के लिये मैंने अपने कपड़े शव को पहना कर अपनी घड़ी, पैन और डायरी सहित ‘डल’ में फिकवा दिया और स्वयं वहाँ से भाग बैंगलोर जा पहुँचा। मेरी उस चतुराई का परिणाम हुआ कि सुमन के कश्मीरी पति के स्थान मेरा मारा जाना समझा जाने लगा और उस कश्मीरी को कातिल समझ उसकी खोज होने लगी।

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