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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


कुलवन्त ने दोनों को इस परेशानी से निकालने के लिये पूछ लिया, ‘‘अमृतजी! यह माताजी आपकी क्या लगती हैं?’’

‘‘यह यहाँ कैसे हैं?’’ अमृत ने अपने मन पर नियन्त्रण पाते हुए पूछ लिया।

‘‘यह यहाँ पतोहू से मिलने आयी हुई हैं। मैने बताया था न कि मेरी पत्नी की एक विधवा बहन है जो नीचे की मंजिल पर रहती हैं। वह इन माताजी की पतोहू हैं और उनसे ही मिलने आयी हुई हैं।’’

‘‘ओह! और वह कहाँ हैं?’’

‘‘नीचे की मंजिल पर हैं।’’

‘‘तो अब माताजी ही बतायेंगी कि मेरा इनसे क्या सम्बन्ध हैं।’’

‘‘कुछ-कुछ तो मैं समझ गया हूँ। क्यों, माताजी! यह आपके पुत्र हैं क्या?’’

सुन्दरी ने आँखें, पोंछते हुए और मुस्कराते हुए कहा, ‘‘बताओ न अमृत! मुझे पाँय लागू क्यों किया है?’’

‘‘मिस्टर कुलवन्त!’’ अमृत ने अब साहस पकड़ कहा, ‘‘मैं तो पहले दिन ही समझ गया था कि आपकी पत्नी मेरी साली है। मैं यह भी समझ गया था कि आपके मकान की नीचे वाली मंजिल पर रहने वाली मेरी विवाहिता है। मैंने आपको कार्यालय में बताया नहीं। यह इसलिये कि जब आपने चाय का निमन्त्रण दिया तो मैं सब बात यहाँ आकर करना चाहता था। मेरा विचार था कि ये दोनों बहनें मिलेंगी, परन्तु यहाँ मिल गयी हैं माताजी।’’

‘‘हाँ। यह घटनावश ही है कि यह गरिमा की बहन महिमा से मिलने आयी हुई हैं और इस समय गरिमा से मिलने यहाँ बैठी थीं।

‘‘परन्तु महिमा कहाँ है? मैं उससे मिलकर अपना भावी कार्यक्रम बनाना चाहता हूँ।’’

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