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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


एकाएक बलवन्त ने कह दिया, ‘‘मैं समझता हूँ कि शेष चाय हमें नीचे चलकर महिमा जी के घर में लेनी चाहिये। आइये, माताजी! चलिये, मैं सुखिया को कह देता हूँ कि सब सामान उठाकर नीचे चली आये।’’

अमृत ने अभी आधा प्याला चाय पी थी। आधा प्याला चाय का उसने हाथ में पकड़ा हुआ था। उसने प्याला सासर में रख दिया और उठ खड़ा हुआ। दोनों सैनिक अधिकारी सेना में रहने के कारण तुरन्त निर्णय करने की प्रवृत्ति रखते थे। वे दोनों उठे तो गरिमा ने भी हाथ का प्याला मेज़ पर रख दिया और सुन्दरी का मुख देखने लगी। सुन्दरी इतनी जल्दी निश्चय नहीं कर सकी थी। वह बैठी-बैठी ही तीनों का मुख देखती रही। गरिमा ने कहा, ‘‘मौसी! आइये, नीचे चलकर दोनों महिमा और उसके पति को आमने-सामने बैठाकर बात कर लें तो ठीक रहेगा।’’

सुन्दरी अनिच्छा से उठी और सबके पीछे-पीछे नीचे उतर आयी। कुलवन्त सबके आगे था।

नीचे पहुँच वे स्तब्ध खड़े रह गये। बलवन्त बैठक के द्वार में खड़ा था और बाहर सड़क की ओर देख रहा था।

‘‘यहाँ खड़े क्या कर रहे हो?’’ पिता ने पुत्र से पूछा।

‘‘मौसी इधर गयी हैं।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कहती थीं कि ऊपर माँ को जाकर कह दूँ कि नीटू अकेली सो रही हैं।’’

‘‘तो अब वह भाग गयी है?’’ सुन्दरी ने सब बात सुन और समझ कर कहा।

‘‘यह ठीक नहीं हुआ।’’ कुलवन्त ने गम्भीर हो कहा।

‘‘मैं तो क्षमा माँगने आया था, परन्तु उसने अवसर नहीं दिया।’’

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