उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘आपके पौत्र ने दाम अपने पास से दे मुझे पुस्तक ले दी। मैंने उनका पता पूछा जिससे कि मैं पुस्तक का दाम भेज सकूँ तो वह बोले कि वह भी बिलासपुर में ही रहते हैं और मेरे पिताजी को जानते हैं। अतः वह दाम उनसे ले लेंगे। मैं समझी नहीं और मुझे विस्मय हुआ जब उन्होंने पिताजी से दाम में मुझे ही माँग लिया।’’
‘‘हाँ।’’ विष्णुशकर ने कहा, ‘‘मुझे सब स्मरण है और मैं समझता हूँ कि इसी कारण अवस्था यह बन गयी है कि वह जेल में है और तुम यहाँ बैठी तपस्या कर रही हो।’’
‘‘तो इसका निराकरण नहीं हो सकता?’’ महिमा का अगला प्रश्न था।
‘‘तो दूसरा विवाह करोगी?’’
‘‘नहीं बाबा! मेरा यह अभिप्राय नहीं है। मैं निस्सन्तान ही रहना चाहती हूँ।’’
‘‘यह तो तुम पति के साथ रहते हुए भी थीं। इसी अवस्था को वह चलाना चाहता था। यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा थी तो उसका तिरस्कार किसलिये किया था?’’
‘‘बाबा, ऐसा नहीं। तिरस्कार के समय मैं आपके पौत्र से सन्तान की इच्छा रखती थी। मैंने याचना भी की थी, परन्तु वह सन्तान देने के लिये तैयार नहीं हुए और पीछे उन्होंने एक अविवाहित पत्नी को सन्तान दी है। यह देख मैं अपमानित अनुभव करती हूँ। साथ ही विवाह से पूर्व की भावना जागृत हो गयी है।’’
‘‘क्या भावना थी तब?’’
‘‘यही की पढ़ाई समाप्त कर बौद्धिक कार्य करूँगी और उसमें ही रस प्राप्त करूँगी।’’
‘‘तो अब तुम पुनः पढ़ाई चालू रखना चाहती हो?’’
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