उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘हाँ, बाबा! एक अन्तर आ गया है। तब मैं यह समझती थी कि किसी स्कूल, कालेज में पढ़ाती हुई स्वतः सुख-भोग करूँगी। अब आपकी शिक्षा से स्वतः सुख-भोग की लालसा नहीं रही, प्रत्युत बौद्धिक जीवन को यज्ञ रूप चलाने की लालसा बन रही है।’’
‘‘यह विचार ठीक है। मैं समझता हूँ कि तुम आगामी वर्षारम्भ पर पुनः चण्डीगढ़ विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने का यत्न करो। मुझे इस इच्छा से तुम्हारे जीवन में विरोधाभास दिखायी नहीं देता।’’
इस समय सुन्दरी ने एक प्रश्न कर दिया, ‘‘पर बाबा! हमारे परिवार का सूत्र क्या यहीं टूट जायेगा?’’
‘‘नहीं तुम उस कश्मीरी लड़की को घर ले आओ और उसकी सन्तान से अपने परिवार में वृद्धि कर लो।’’
‘‘नहीं। बाबा!’’ सुरेश्वर ने कहा, ‘‘उस स्त्री की सन्तान हमारे परिवार की परम्परा के अनुकूल नहीं होगी।’’
‘‘तो अमृत को कहना कि वह जेल से छूटने के उपरान्त पुनः विवाह कर लें।’’
इस पर बात समाप्त हो गयी। महिमा के मन में इससे किसी प्रकार का दुःख अनुभव नहीं हुआ।
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