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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


महिमा चुप कर गयी। तीनों स्त्रियाँ एक-दूसरे का मुख देखती रह गयीं। एकाएक सुन्दरी ने कह दिया, ‘‘मैं समझती हूँ कि अमृतसर एक तार भेज प्रज्ञा को यहाँ बुला लें। मैं तो अकेली रसातल में पहुँच रही अनुभव कर रही हूँ।’’

गरिमा ने कहा, ‘‘माताजी! अब सो जाइये प्रातःकाल बलवन्त के पिताजी से सम्मति करेंगे। कदाचित् वह इस समस्या का कोई सुझाव उपस्थित कर सकें।’’

इतना कह गरिमा ऊपर की मंजिल पर चली गयी। कुलवन्त उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। गरिमा ऊपर शयनागार में पहुँची तो कुलवन्त ने पूछ लिया, ‘‘बहुत देर लगा दी है नीचे?’’

‘‘हाँ। दीदी आयी हुई थी और माताजी से कह रही थी कि उसे जीजाजी पर विश्वास नहीं आ रहा। वह जीजाजी का यह कहना छुप कर सुन गयी प्रतीत होती है कि वह माताजी के पीछे-पीछे छुप कर उसके शयनागार में घुस जायेंगे।’’

कुलवन्त खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला, ‘‘अमृत के इस कथन से तो उसके लिये मेरे मन में मान बढ़ गया है। वह एक श्रेष्ठ सैनिक है। जब हम किसी पर आकमण करते हैं तो उससे पूछ कर नहीं करते। न ही ढोल और नगारों से शोर मचाते हुए करते हैं। हाँ, आक्रमण आरम्भ होने के उपरान्त तो तोप, बन्दूक, बम्ब चलते हैं।

‘‘और जब विजय होती है तो फिर शान्ति का सुखमय जीवन चलता है। मैं अमृत के कथन का अर्थ यही समझा था। हमारी भाषा में यह एक सामान्य विधि-विधान है। सन् १९६२ में चीन ने इसी प्रकार आक्रमण किया था। विजय चीन की हुई और अब शान्ति है। यद्यपि अभी भी उस बलात्कार पर भारत को दुःख तो है, परन्तु अब क्या हो सकता है? मेरी सम्मति तो यह है कि अमृतजी की सहायता की जाये, जिससे कि उसे एक पत्नी मिल जाये।’’

‘‘मैं महिमा दीदी और मौसी को यह कह आयी हूँ कि आप कल इसका कोई उपाय बतायेगे।’’

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