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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


‘‘यह तो बाबा की कहानी में आया नहीं। हाँ, इतना समझ आता है कि तब अवश्य सन्तुलित मन वाली सन्तान होगी।’’

‘‘अर्थात् तुम्हारे मन में सन्तान उत्पन्न करने की भावना उत्पन्न की जाये। जीजाजी के मन में तो प्रतीत होती है।’’

‘‘मुझे इसमें सन्देह हैं।’’

‘‘अच्छा, तुम्हारे जीजाजी से कहूंगी कि मेरे जीजाजी के मन की भावना का पता करें। यदि वह माँ जी के परिवार को चलाने के इच्छुक हुए तो फिर तुम मान जाओगी?’’

महिमा चुप रही। वह समझ रही थी कि वह मोह-जाल में फँस रही है। सुन्दरी महिमा के सामने बैठी थी। वह महिमा के कथन को सुन आति दुःखी हो रही थी। उसकी आँखें आँसुओं से डबडबा आयी थीं।

वह गरिमा ने देखे। महिमा तो आँखें मूँद अपने अन्तरात्मा को टटोल रही थी। गरिमा ने माताजी की आँखे तरल देखीं तो पूछ लिया, ‘‘मौसी! आपको इस घटना से बहुत दुःख हो रहा है न?’’

सुन्दरी ने अपने आँचल से आँखें पोंछनी आरम्भ कर दीं। गरिमा का कथन सुन महिमा ने आँखें खोल दीं और सास को आँखें पोंछते देख पूछ लिया, ‘‘तो आप रोने लगी थीं माताजी? पर क्यों?’’

सुन्दरी ने पुनः आँखों में आँसू भरते हुए कहा, ‘‘मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा है कि हम, मेरा अभिप्राय है कि मैं और अमृत के पिताजी वृद्धावस्था को प्राप्त हो परिवार को समाप्त करते हुए परलोक गमन करेंगे।’’

महिमा ने कह दिया, ‘‘आप अपने पुत्र के नवीन विवाह का प्रबन्ध क्यों नहीं कर देतीं?’’

‘‘वह इसिलये,’’ सुन्दरी ने महिमा की आँखों में देखते हुए कहा, ‘‘कि मैं अपनी लड़की महिमा पर सौतन नहीं ला सकती। मन नहीं मानता।’’

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