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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास

9

पहली रात कुलवन्त रात के दो बजे तक जागता रहा था। आज वह रात के भोजनोपरान्त सोने की तैयारी करने लगा। गरिमा के मन में विचार आया कि नीचे मौसी को पूछ आये कि उसे किसी वस्तु की आवश्यकता तो नहीं। उसके विस्मय का ठिकाना नहीं रहा जब उसने सास-पतोहू को पतोहू के सोने के कमरे में बैठ बातें करते देखा।

‘‘दीदी!’’ गरिमा ने कमरे में प्रवेश करते ही पूछ लिया, ‘‘कहाँ भाग गयी थी?’’

‘‘यही करोलबाग में ही थी। निर्मला बहन के घर चली गयी थी। विचार था कि माताजी के पुत्र चले जायेंगे तो लौट आऊँगी।

‘‘निर्मला के पति यहाँ देखने आये के कि तुम्हारे जीजाजी यहाँ से चले गये हैं अथवा नहीं? उन्होंने यहाँ आ जीप में माताजी के लड़के को जाते और जीजाजी को उसे विदा करते हुए यह कहते सुन लिया था कि कल मिलकर बात करेंगे।

‘‘इसके उपरान्त निर्मला के घर खाना खाया और माताजी को सान्त्वना देने चली आयी हूँ।’’

‘‘परन्तु तुम चली क्यों गयी थी?’’

‘‘गरिमा! मुझे अभी भी विश्वास नहीं आया कि उनमें किसी प्रकार का परिवर्तन आया है। मैंने उनको यह कहते हुए सुन लिया था कि वह माताजी के पीछे छुपकर आना चाहते हैं और बलपूर्वक मेरे शयनागार में घुस जाना चाहते हैं।

‘‘यह असुरों का-सा व्यवहार है। बाबा ने एक दिन कथा में यह कहा था कि जब स्त्री सन्तान की कामना करती है तो यह एक स्वाभाविक और शुभ परिणाम उत्पन्न करने वाला व्यवहार है। परन्तु जहाँ पुरुष स्त्री के पीछे भागने लगे तो सब-कुछ उलट-पुलट हो जाता है।’’

गरिमा गम्भीर विचार में मग्न हो गयी। एकाएक उसके मन में विचार आया और उसने पूछ लिया, ‘‘यदि पुरुष-स्त्री दोनों में सन्तान की कामना हो तो क्या होगा?’’

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