उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
रोहिणी कुछ देर तक सामने बैठी स्त्री के मुख पर देखती रही। उसने कुछ विचार कर कहा, ‘‘मुनिजी ने ठीक कहा है कि शरीर तो स्त्री के साँचे में रूप स्वीकार करता है। इसलिये मैं यह समझती हूँ कि कैकसी बहन के साँचे में कुछ दोष है। सम्भवतः तुम्हारा मन और तुम्हारी बुद्धि ठीक कार्य नहीं कर रही। इनमें क्या दोष है? यह तो यहाँ रहो तो फिर जान सकूँगी और यदि उसका कुछ सुधार हो सका तो यत्न करूँगी।
‘‘मैं समझती हूँ कि अब तुम इस कुटिया में ही रह जाओ। यहाँ नित्य वेद भगवान् का पाठ और व्याख्या सुनते हुए बुद्धि, मन और आत्मा में सुधार होने लगेगा। तब परमात्मा की कृपा से सन्तान भी श्रेष्ठ होगी।’’
‘‘परन्तु यहाँ रहते हुए पति की संगत प्राप्त नहीं हो सकेगी।’’
‘‘हो जायेगी। तनिक देखो, कि मुनिजी को भी तुम्हारी सेवा की आवश्यकता है अथवा नहीं?’’
इस बात ने उसे वहीं रह जाने पर तैयार कर दिया। उसको विदित था कि वह पिछले दस वर्ष में स्वयं ही मुनिजी के पास सन्तान की याचना के लिये गयी थी। मुनिजी मान गये थे। अब रोहिणी के सुझाव पर वह यह देखने के लिये तैयार हो गयी कि मुनि को भी सन्तान की इच्छा है अथवा नहीं?
अतः उसने रोहिणी की कुटिया में ही निवास स्वीकार कर लिया। इस कुटिया में रहते हुए और दिन-रात स्वाध्याय, धारणा-ध्यान और चिन्तन से उसका चित्त स्थिर होने लगा। उसकी इच्छा पति पाने की धीरे-धीरे कम होने लगी।
इस प्रकार चार वर्ष व्यतीत हो गये। एक दिन मुनि आये और द्वार पर खड़े हो कैकसी को कहने लगे, ‘‘देवी! आज पति की कुटिया को सुशोभित करो। आज एक श्रेष्ठ मुहूर्त्त है।’’
कैकसी मुनि को देख उठ उनके साथ चल पड़ी। गर्भ स्थित हुआ तो वह पुनः रोहिणी की कुटिया में आ गयी। इस वार पुनः लड़का हुआ। यह दोनों भाइयों से अधिक सुन्दर, सौम्य स्वभाव और बुद्धिमान प्रतीत होता था। इसका नाम विभीषण रखा गया।
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