उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
रोहिणी ने मुस्कराते हुए पूछ लिया, ‘‘तो बहन को मुनिजी सम्पत्ति दिखायी दिये हैं? सम्पत्ति तो एक जड़ वस्तु होती है। क्या मुनिजी का योग एक जड़ वस्तु के भोग के समान समझ आया है?’’
कैकसी इस विवेचना पर घबरा उठी और आश्चर्यवत् मुख देखने लगी। उसे इस प्रकार घबराया देख, रोहिणी खिलखिलाकर हँस पड़ी। हँसते हुए उसने कहा, ‘‘वह जड़ नहीं है। चेतना-युक्त आत्म-तत्व हैं। उनकी इच्छा के बिना तुम उनका भोग प्राप्त नहीं कर सकती थी। इस कारण मैं तो यही समझी थी कि उन्होंने स्वेच्छा से तुम्हारी सेवायें स्वीकार की हैं।’’
‘‘जहाँ तक मेरी बात है, मैं उनको सम्पत्ति नहीं समझती। मैं अपने को भी केवल भोग-सामग्री नहीं मानती। मुनिजी एक महान् विभूति हैं। उनको अपनी और अपने पूर्वजों की परम्परा चलाने के लिये एक पुत्र चाहिये था। मैंने उनकी इस इच्छा-पूर्ति से सहयोग दिया है।’’
‘‘हाँ। उन्होंने बताया है कि अब आपकी इच्छा उनकी सेवा के लिये नहीं होती।’’
‘‘हाँ। मैंने अपना कर्तव्य पालन कर दिया है और एक सुन्दर, योग्य पुत्र उनको दे दिया है।’’
‘‘आपके सुपुत्र को देखकर ही तो मैं मुनिजी के पास आयी थी और वैसे ही एक-दो पुत्रों की इच्छा करती थी। परन्तु बहुत निराशा हुई है। बड़ा लड़का दशग्रीव सुन्दर है, धीमान है, बलवान् है; परन्तु वह इतना चंचल है कि एक क्षण भी निश्चल बैठ नहीं सकता और उसकी इच्छा सदा दूसरों को कष्ट देने की बनी रहती है। दूसरा पुत्र विशालकाय, कुम्भ में बोलने के समान शब्द वाला और तामसी प्रवृत्ति का है। वह दिन-भर सोया रहता है। अब एक लड़की हुई है। वह भी कुछ अधिक सुन्दर नहीं है।
‘‘मैंने आज मुनिजी से कहा है कि यह कैसे हुआ कि उनकी सन्तान ऐसी निकृष्ण हुई है? इस पर उन्होंने बताया कि सन्तान का शरीर तो माँ की देन होता है। इसका रहस्य मुझे आपसे जानना चाहिये।’’
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