उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
बलवन्त अपनी माँ के पास जा बैठा था। नीटू को मेज के एक किनारे पर बैठा दिया गया था और वह दूध पीकर तृप्त बैठी थी।
कुलवन्त ने माता सुन्दरी के प्रश्न का उत्तर दे दिया। उसने कहा, ‘‘मौसी! महिमा दीदी कहती हैं कि उचित वातावरण में उचित ढंग से उपाय किया जाये तो उससे अमृत की सन्तान हो सकती है।’’
सुन्दरी ने हँसते हुए कहा, ‘‘आधी रात तक मेरे समझाने और विनय-अनुनय करने का इतना फल हुआ है कि यह हमारे घर में पोतें पोतियों का द्वार खोल रही है।’’
‘‘मौसी! यही तो मैं समझा हूँ। अब प्रश्न रह गया है कि उचित वातावरण और उचित ढंग का ज्ञान प्राप्त किया जाये।’’
‘‘देखो बेटा!’’ सुन्दरी ने कहा, ‘‘तुम अमृत को इस बात के लिये राजी करो कि वह महिमा से स्वयं पृथक् में मिले और इन दोनों बातों के विषय में जानकारी प्राप्त कर ले। यह पति-पत्नी में उचित-अनुचित की बात उनको स्वयं ही निश्चय करनी चाहिये।’’
‘‘कहाँ और कब वह दीदी से मिलकर बातचीत कर सकता है?’’
‘‘यह भी वह स्वयं ही जानने का यत्न करे।’’ सुन्दरी ने यह भी बताया, ‘‘रात महिमा बेटी हमारी दयनीय दशा के विषय में जान चुकी है। इससे मैं आशा कर रही हूँ कि यह उस दिशा में सुधार लाने का यत्न करेगी।’’
इस विषय पर अधिक बातचीत नहीं हो सकी। कुलवन्त को अपने कार्यालय में जाना था। उसने अपना स्कूटर निकाला और ‘कन्टोनमैण्ट’ को चल पड़ा।
कार्यालय में जाते ही उसे अमृत की एक दिन की छुट्टी की अर्जी मिली। उसने लिखा था–‘मैं एक अत्यावश्यक निजी कार्य के लिये ‘कन्टोनमैण्ट’ से बाहर जा रहा हूँ। अतः चौबीस घण्टे की छुट्टी प्रदान की जाये।’
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