उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
कुलवन्त की हँसी निकल गयी। उसने भीतर पहुँचते ही हँसते हुए कहा, ‘‘तो यह बात है? तुमने छुट्टी को बहुत उपकारी काम में व्यय किया प्रतीत होता है।’’
‘‘हाँ, श्रीमान्! महिमा जी की यह महिमा है कि इन्होंने आज रात इस घर में रह जाने का निमन्त्रण दिया है।’’
‘‘तब तो अमृत! मैं तुम्हें बधाई देता हूँ।’’
महिमा मुस्कराती हुई अपने जीजाजी के मुख पर देख रही थी।
कुलवन्त विचार कर रहा था कि पति-पत्नी में मिलने के लिये ठीक ढंग और ठीक वातावरण निर्माण करने के उपाय सामान्य वार्त्तालाप से विलक्षण ही है।
उसे विश्रवा मुनि की कुटिया में कैकसी के पहुँचने और सन्तान की माँग करना ही ठीक ढंग और ठीक वातावरण का सुचक समझ आया। इस कथा को स्मरण कर उसे समझने में देर नहीं लगी कि यह बात मुनि से केवल इस अंश में विलक्षण है कि वहाँ पत्नी के पास गयी थी और यहाँ पति-पत्नी के पास आया है। शेष सब समान रूप में ही हुआ है।
वह कुछ कहने ही वाला था कि गरिमा ने पूछ लिया, ‘‘यह टेलीफोन आप लगवा रहे हैं?’’
‘‘मैं बाहर तारें फिट की जाती देख आया हूँ।’’
‘‘भीतर तो सब फिटिंग आपके कमरे में ही गयी है।’’
‘‘तब तो आधे घण्टे तक टेलीफोन चालू हो जायेगा।’’
‘‘वे लोग कह रहे थे कि उनको आज्ञा है कि रात आठ बजे से पूर्व यह चालू हो जाना चाहिये।’’
‘‘ये किस समय आये थे?’’
‘‘पाँच बजे के लगभग आये थे।’’
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