उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘यह मैं जानता हूँ। हम देवताओं के भाई दैत्य हैं और तुम्हारी सन्तान पिता-पक्ष के मानस-पुत्र की सन्तान होने से वहाँ प्रवेश पा जायेगी।’’
‘‘पर बाबा! यदि ऋषि ने पूछा कि वहाँ बच्चों को भेजने का क्या उद्देश्य है तो क्या बताऊँगी?’’
‘‘कुछ नहीं। यही कि यहाँ बच्चे उच्छृख्ङल होते जाते है। वहाँ वे श्रेष्ठ क्षत्रिय बनकर आयेंगे।’’
‘‘और यह न बताऊँ कि मैं लड़कों के लिये लंका के राज्य की इच्छा करती हूँ?’’
‘‘अभी नहीं। यह बात बताने की नहीं।’’
‘‘तो बाबा! तुम बच्चों को ही कहो कि वे स्वयं अपने पिता से कहकर वहाँ चले जायें। मैं उनके सम्मुख झूठ नहीं बोल सकती।’’
‘‘किसलिये?’’
‘‘वह कुद्ध हो गये तो मुझे भस्म कर डालेंगे।’’
‘‘तुम सर्वथा भीरु हो।’
‘‘ठीक है बाबा। यदि मुनि ने पूछा तो मैं सत्य-सत्य बता दूँगी।’’
‘‘अच्छा, रहने दो। तुम मत कुछ कहना। मै दशग्रीव को ही कहूँगा कि वह अपने पिता से स्वयं कहकर उनकी स्वीकृति लेकर वहाँ शिक्षा प्राप्त करने चला जाये।’’
दोनों भाई मल्ल-युद्ध कर रहे थे कि सुमाली उनकी माँ से निराश हो उनकी व्यायामशाला में जा पहुँचा। वह पहले भी उनको व्यायाम करते देखने आया करता था और उनको उस दुस्तर कार्य के लिये तैयार होते देख प्रसन्न हुआ करता था। अतः वह यह देख रहा था कि दोनों भाई शारीरिक बल में तो तैयार है। अब इनको युद्ध-विद्या और शस्त्रास्व प्रयोग करने का ज्ञान दिलाना चाहिये। वह वहाँ विश्रवा मुनि के आश्रम में सम्भव नहीं था।
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