उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
जब दोनों भाई व्यायाम से अवकाश पा, अखाड़े में बाहर निकल वस्त्र पहनने लगे तो सुमाली ने कहा, ‘‘मैं आज आपसे एक विशेष परामर्श करने आया हूँ।’’
‘‘तो माताजी के पास चलें?’’ कुम्भकर्ण ने पूछ लिया।
‘‘नहीं। यह बात स्त्रियों से करने की नहीं। यह मैं तुम दोनों से सर्वथा पृथक, में करूँगा।’’
दोनों भाई वस्त्र पहन अपने नाना के साथ चल पड़े। वह उनको अपने साथ वहाँ ले गया जहाँ उसने अपना विमान खड़ा किया हुआ था। उसमें बैठ सुमाली ने अपने पूर्वजों का पूर्ण इतिहास बता दिया। उसने विष्णु द्वारा की गयी राक्षसों की हत्या का भी वर्णन कर दिया और वहाँ से अकिंचन हुए राक्षसों का पाताल में जाकर दुःख और कष्ट के जीवन का विस्तृत वर्णन सुना दिया। इसके पश्चात् उसने कहा, ‘‘मैंने तुम्हारी माता का विवाह यहाँ के मुनि से इस कारण किया था जिससे कि उसके पुत्र इसकी दूसरी पत्नी के पुत्र के बराबर के पत्तीदार बन सकें। वह तुम हो। परन्तु राजनीति में अधिकार प्राप्त करने के लिये शक्ति का संचय करना पड़ता है।
‘‘अभी तक तुम बलवान तो हो गये हो। मुझे विश्वास है कि यदि मल्ल-युद्ध से निर्णय होना हो तो तुम अपने भाई धनाध्यक्ष को पछाड़ दोगे। परन्तु बेटा, आज राज्यों का निपटारा इस पाशविक बल से नहीं होता। इसके लिये शस्त्रास्त्र प्रयोग करने का ज्ञान भी होना चाहिये। साथ ही राजनीति, युद्ध-नीति, मायावी युद्ध और इस श्रेणी की अन्य विद्याओं को सीखना होगा। उसके लिये यह आश्रम स्थान नहीं है।
‘‘मैं चाहता हूँ कि तुम ब्रह्मलोक में चले जाओ। वहाँ इन सब विद्याओं का विद्यालय है। उस विद्यालय के कुलपति ब्रह्माजी स्वयं है। उनका प्रणाम-पत्र सुगमता से नहीं मिलता। उसके लिए घोर तपस्या की आवश्यकता रहती है। यह तुम करने के योग्य हो गये हो।
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