उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
|
352 पाठक हैं |
भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘देखो बेटा! तुम वहाँ से शिक्षित हो आओगे तो तुम्हें मैं लंका का राज्य दिलवा दूँगा। सहस्त्रों राक्षस तुम्हारी सहायता के लिये एकत्रित हो जायेंगे।’’
कुम्भकर्ण इस कठोर तपस्या और शीतप्रधान ब्रह्मदेश में जाकर रहने के लिये तैयार नहीं हो रहा था। वह तो नाना की बात सुनता-सुनता भी ऊँघने लगा था। जब सुमाली अपनी इच्छा कह चुका तो दशग्रीव तो तैयार हो गया, परन्तु कुम्भकर्ण से जब सुमाली ने पूछा तो उसने नाना की बात सुनी ही नहीं थी। उसने सचेत हो पूछा, ‘‘क्या कहा है नाना?’’
दशग्रीव ने बताया, ‘‘इसने आपकी बात सुनी ही नहीं। यह उस समय सो रहा था।’’
‘‘तो फिर?’’
दशग्रीव ने उसकी पीठ में एक मुक्का लगा कहा, ‘‘अरे कुम्भ! सुनो, हमें अब यहाँ से चलना होगा।’’
‘‘कहाँ?’’ कुम्भकर्ण ने पूछ लिया।
‘‘ब्रह्म लोक में। शस्त्रास्त्र की विद्या सीखने।’’
‘‘पर वहाँ तो बहुत शीत होगी।’’
‘‘कुछ भी हो, चलना होगा।’’
विश्रवा मुनि से ब्रह्मा के नाम पत्र ले दोनों भाई ब्रह्मलोक में जा पहुँचे।
इसको सुनकर भृगुदत्त ने विस्मय प्रकट करते हुए कहा, ‘‘बाबा! ऐसी बात किसी ग्रन्थ में लिखी नहीं?’’
|