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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


‘‘हाँ, इस रूप में नहीं लिखी।’’ विष्णुशरण ने कहा, ‘‘परन्तु इसके अतिरिक्त तो अन्य कुछ अर्थ निकलते ही नहीं। पण्डितजी, आप क्या समझते हैं कि दशग्रीव और उसका भाई ब्रह्मा के प्रासाद के बाहर एक टाँग पर खड़े हो तपस्या करते रहे थे। ऐसा भी तो कहीं नहीं लिखा।

‘‘बात यह है कि सहित्यिक ग्रन्थों में इतना मात्र ही कहा जा सकता है कि गुरुकुल में बह्मचारी पच्चीस वर्ष की आयु तक तपस्या का जीवन व्यतीत करते थे। इस तपस्या का अभिप्राय निरन्तर घोर प्रयत्न से कार्य-सिद्धि में लगा रहना है।

पाँच वर्ष की कठोर शिक्षा के उपरान्त दशग्रीव और कुम्भकर्ण शिक्षा समाप्त कर ब्रह्माजी से वर, अभिप्राय यह कि प्रमाण-पत्र लेकर अपने पिता के आश्रम में लौट आये।

‘‘वहाँ सुमाली उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। जब ये अपनी शिक्षा का प्रमाण-पत्र अपने माता-पिता को दिखा चुके तो नाना के पास पहुँचे। सुमाली ने उनके प्रमाण-पत्र को पढ़कर कहा, ‘‘यह बहुत अच्छा है। अब तुम मेरे साथ लंकापुरी को चलो और उसे देख लो कि कितना सुन्दर राज्य है और उसके लिए तुम्हारी तपस्या का कुछ भी मूल्य नहीं।’’

‘‘दशग्रीव और कुम्भकर्ण सुमाली के साथ लंका में पहुँचे। चारों ओर सागर से घिरी लंकापुरी और उसमें सुदृढ़ प्राचीरों से घिरा हुआ नगर, स्वर्ण और रत्न जड़ित द्वारों वाला नगर भूतल पर एक सूर्य समान शोभायमान हो रहा था।

‘‘सुमाली ने अपने नातियों को पूर्ण लंकापुरी में घुमाकर उसके सौन्दर्य और शोभा को दिखाया तो दशग्रीव की लार टपक पड़ी। उसने कहा, ‘‘बाबा! इसे विजय करने में तो घोर युद्ध करना पड़ेगा।’’

‘‘नहीं। तुम इस पर भाई के नाते अपना दावा करो। वह स्वीकार नहीं होगा। तब मैं तुम्हें इसी दिशा में सहस्त्रों की सहायता से विद्रोह करा, तुम्हें यहाँ का राजा बनवा दूँगा।’’

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