उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘ऐसा तो पहले हो चुका है।’’ धनाध्यक्ष ने साहस पकड़ कहा, ‘‘हिरण्यकशिपु और विष्णु लड़ चुके हैं। आदित्य और दैत्य भी कई बार लड़ चुके हैं। बलि और इन्द्र का झगड़ा भी विख्यात है। वामन का छल से बलि का राज्य लेना भी इतिहास में लिखा मिलता है।’’
ऋषि ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘इसी से तो कहता हूँ कि तुम केवल अयोग्य शासक ही नहीं, वरन् मूर्ख भी हो।
‘देखो वैश्रवण! हिरण्यकशिपु का और विष्णु का वही झगड़ा था जो विष्णु और माल्यवान का था। वहाँ राज्य का झगड़ा नहीं था, प्रत्युत प्रजा पर अत्याचार का झगड़ा था। यही बात वामन और बलि की थी। प्रजा का धन ले-लेकर बलि अपने यज्ञों पर व्यय कर रहा था। यज्ञों में भी पात्र-कुपात्र का विचार किये बिना दान दिया जाता था। वामन ने उसकी मिथ्या उदारता का भाण्डा फोड़ने के लिये वह आयोजन किया था। न तो विष्णु ने हिरण्यकशिपु का राज्य लिया था और न ही वामन ने बलि का।
‘‘जब उनका अपना राज्य दैत्यों ने छीनने का प्रयास किया तो आदित्यों ने स्वयं अपने बलबूते पर देवासुर संग्राम लड़े थे। परन्तु तुम्हारी बात दूसरी है। तुम राज्य में रहते हुए दुर्बल रहे हो। तुम्हारी प्रजा ही तुम्हारी विरुद्ध उठ खड़ी हुई है। तुम जैसे अयोग्य शासक के लिये कोई देवता भी सहायता के लिये नहीं आयेगा।
‘‘भाई-भाई की बात तो मैंने अपने विचार से कही है। तुम दोनों में मेरे लिये कुछ अन्तर नहीं है। वह अपने नाना की परम्परा चलायेगा अथवा नहीं, कहा नहीं जा सकता। हाँ, तुमने देवताओं की परम्परा नहीं चलायी। तुमने देवता और असुर में भेद-भाव नहीं रखा। अब तुम किस आधार पर देवताओं से सहायता माँग सकते हो अथवा मेरी सहानुभूति के पात्र हो?’’
‘‘परन्तु पिताजी! वह प्रकृति से दुष्ट और चरित्र से हीन है।’’
‘‘उसमें मैंने क्रूरता तो देखी है, परन्तु ब्रह्मलोक की शिक्षा में वह अवश्य बदला होगा और यह राज्य-संचालन करने पर पता चलेगा। तुम तो असफल सिद्ध हो चुके हो।’’
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