उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
ऋषि ने क्रोध में अपने पुत्र को सम्बोधन कर कहा, ‘‘वैश्रवण! तुम एक अयोग्य शासक सिद्ध हुए हो। अब अपनी अयोग्यता के दोष को मिटाने के लिये अपने अनुगामी भक्तों की हत्या करने का विचार कर रहे हो। यह महापाप हो जायेगा।
‘‘तुम यह नहीं समझ सके कि सरलचित्त वानर और रीछ कुटिल राक्षसों से अधिक विश्वास के योग्य हैं। कुशलता क्या श्रेष्ठता का स्थानापन्न हो सकती है? श्रेष्ठता जन्म-जात होती है। कुशलता शिक्षा और संगत से उपलब्ध की जाती है।
‘‘यदि तुम्हारे नगर के श्रेष्ठ लोग अपना देश छोड़कर नहीं आये तो यह इस कारण कि तुमने अपने देश में वह सुविधायें उपलब्ध नहीं करायीं जो अन्य देशों में उनको प्राप्त थीं। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम यक्ष प्रवृत्ति से बाहर नहीं निकल सके। लोकपाल का काम क्षत्रिय वर्ग का है, वैश्य-वृत्ति वालों का नहीं। वैश्य तो सदा धन की गिनती-गिनती में लगा रहा है। क्षत्रिय उद्देश्य की पूर्ति के लिये धन को क्या जीवन की भी आहुति दे देता है।’’
‘‘सस्ते श्रमिक ढूँढते हुए तुमने अपने और अपनी जाति के शत्रु एकत्र कर रखे थे।’’
कुबेर ने अपने मन की बात कह दी। उसने कहा, ‘‘पिताजी! मैं इन्द्रदेव के पास सहायता के लिये जाना चाहता हूँ।’’
‘‘वह क्या करेगा? व्यर्थ की हत्यायें तुम जैसे अयोग्य शासक के राज्य की रक्षा करने के लिये, मैं उचित नहीं मानता। इससे न तुम्हारा कल्याण होगा, न देवताओं का।
‘‘मेरी सम्मति मानो। तुम अपने परिवार को लेकर वहाँ से चले आओ। अपने लिये स्थान कहीं देवलोक क्षेत्र में बना लो। यहाँ अभी बहुत स्थान रिक्त पड़ा है।’’
कुबेर पिता का मुख देखता रह गया। पिता ने आगे कहा, ‘‘भाई-भाई परस्पर लड़कर एक दूषित प्रथा को मत चलाओ। राज्य के लिये भाई-भाई लड़ते हुए शोभा नहीं पाते।’’
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