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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


कुबेर ने कहा, ‘‘मैं कल मध्याह्नोत्तर तक निणयात्मण बात करूँगा। या तो प्रासाद छोड़ दूँगा अथवा अपने भाई को युद्ध के लिये ललकारूँगा।’’

प्रहस्त सन्तुष्ट हो दशग्रीव के स्थान को लौट गया।

कुबेर ने यह समय इस कारण लिया था कि वह पिता से और इन्द्र से सम्मति करना चाहता था। अतः उसने तुरन्त पुष्पक विमान निकलवाया और पिता के आश्रम को चल पड़ा। विश्रवा का आश्रम हिमालय के चरणों में देवलोक की सीमा पर था।

पिता के आश्रम में पहुँच उसने पूर्ण स्थिति का वर्णन किया और पूछ लिया, ‘‘पिताजी! अब मुझे क्या करना चाहिये?’’

मुनि विश्रवा ने पूछा, ‘‘कुबेर! कब से राज्य कर रहे हो वहाँ?’’

‘‘पैंतीस वर्ष से ऊपर हो चुके हैं।’’

‘‘इस काल में तुमने कितने लोग ऐसे निर्माण किये है जो तुम्हारे लिये जीवन-मरण की बाजी लगा सकें?’’

‘‘वहाँ अस्सी प्रतिशत से ऊपर राक्षस लोग बसे है। शेष बीस प्रतिशत में प्रायः वैश्य और शूद्र है।’’

‘‘तुमने राक्षसों को किसलिये वहाँ बसा रखा है?’’

‘‘अन्य कोई वहाँ बसने के लिये आता नहीं था। देवता तो इस शीत-प्रधान देश को छोड़ वहाँ उष्ण और गीले वायु-मण्डल में जाकर रहना नहीं चाहते। गन्धर्व और किन्नर एक स्थान पर टिक कर रहते नहीं। वे कुछ वहाँ हैं, परन्तु युद्ध की आशंका होने पर वह वहाँ से चल देंगे।’’

‘‘वहाँ समीप ही मानव, रीछ, वानर और गिद्ध इत्यादि जातियों के लोग रहते थे। उनको किसी प्रकार का प्रलोभन देकर वहाँ बसाने का यत्न क्यों नहीं किया?’’

‘‘मानव तो वहाँ आते नहीं। वह विन्ध्याचल से ऊपर के देशो में ही रहना पसन्द करते हैं। अन्य जातियों के लोग अति असभ्य हैं। उन सबसे राक्षस अधिक परिश्रमी और योग्य योद्धा एवं कुशल कारीगर थे।’’

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