उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘कितने लोग होंगे उसके निवास-गृह के बाहर? वहाँ तो चार-पाँच सहस्त्र से अधिक लोग एकत्रित नहीं हो सकते।’’
‘‘महाराज!’’ प्रहस्त ने गम्भीर भाव धारण कर कहा, ‘‘मेरी सूचना के अनुसार वहाँ दस सहस्त्र लोग एकत्रित हो चुके हैं और अभी और आ रहे हैं।’’
‘‘परन्तु हमारी नगरी की जनसंख्या तो इससे बहुत अधिक है।’’
‘‘हाँ, महाराज! लंका की जनसंख्या पचास सहस्त्र है। उन पचास सहस्त्र में से आधे से अधिक स्त्री-वर्ग है। शेष पच्चीस सहस्त्र में से बाल और वृद्ध निकाल दें तो पन्द्रह सहस्त्र युवा रह जाते हैं। इन पन्द्रह सहस्त्रों में शूद्र, वैश्य और ब्राह्मण वर्ग को निकाल दें तो दस सहस्त्र से कुछ कम ही बनते हैं। मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि देश की पूर्ण तरुण क्षत्रिय जनता वहाँ एकत्रित हो रही है।
‘‘ये लोग है जो देश के लिये प्राण को न्योछावर करते हैं और वे ही राज्य करने के अधिकारी हैं।’’
कुबेर इस गणना को सुन गम्भीर विचार में लीन हो गया। वह विचार करता था कि इस दशग्रीव के दूत के कथन में भी सत्यता है। इन दस सहस्त्र युवकों का विरोध करने के लिये मुझे इससे अधिक नहीं तो इतने सैनिक देवलोक से लाने चाहियें। यह इन्द्र, वरुण इत्यादि ही दे सकते हैं।
इतना विचार कर उसने कहा, ‘‘देखो प्रहस्त! तुम दशग्रीव को जाकर कहो कि वह मुझे विचार करने का अवसर दे। मैं नहीं चाहता कि निर्दोष प्रजा का रक्तपात किया जाये। परन्तु यह राज्य मेरे पास किसी की धरोहर है। मुझे इस उत्तरदायित्व को छोड़ने से पूर्व विचार करने दो कि यह उचित भी है अथवा नहीं?’’
‘‘आपका निश्चय कब तक हो जायेगा?’’ प्रहस्त समझ रहा था कि जिस कार्य के लिये उसे सुमाली ने भेजा है, वह पूर्ण हो रहा है। उसे यह कहा गया था कि उसने देवता लोकपात के मन में भय उत्पन्न करना है। इसमें उसे सफलता मिल रही अनुभव हुई थी।
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