उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘इस कारण मुझसे शासन लेने का तो प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। दशग्रीव को कहो कि नगर के भवन को छोड़ दे और यहाँ आ जायें।’’
‘‘महाराज! वह आपके रहते यहाँ नहीं आयेगा।’’
‘‘तो वह क्या चाहता है?’’
‘‘वह चाहता है कि आप यहाँ से चले जायें। आपको देवताओं ने यहाँ का लोकपाल नियुक्त किया है। उन्होंने विष्णु द्वारा राक्षसों की महान हत्या करा कर लंका पर अधिकार प्राप्त किया था। अब राक्षस पुनः अपना राज्य वापस लेना चाहते हैं।
‘‘आप यह लंका राक्षसों को लौटा दें। उनका मनोनीत राजा दशग्रीव यहाँ राज्य करेगा।’’
‘‘ठीक है। यह हो सकता है। परन्तु शासन तो नागरिक समिति ही करेगी।’’
‘‘दशग्रीव और राक्षस यहाँ का शासन शुक्र-नीति की मर्यादा से चलाना चाहते हैं। शुक्र दैत्यों के पुरोहित थे और राक्षस दैत्यों की सन्तान हैं।’’
‘‘हम उस नीति में दोष मानते हैं।’’
‘‘इसी कारण दशग्रीव चाहते हैं कि आप यहाँ से प्रस्थान कर दें। अब शुक्र-नीति से राज्य चलेगा।’’
‘‘परन्तु उस नीति के अनुसार तो प्रजा की समिति कार्य नहीं कर सकेगी।’’
‘‘ठीक है। प्रजा की समिति के स्थान पर सैनिक समिति बनेगी, जिसके अध्यक्ष दशग्रीव होंगे।’’
कुबेर ने कह दिया, ‘‘प्रजा इसे स्वीकार नहीं करेगी।’’
‘‘महाराज!’’ प्रहस्त ने कहा, ‘‘यह प्रजा द्वारा स्वीकार कर ली गयी है। आप अभी अपना संरक्षक भेज पता करिये। सहस्त्रों की संख्या में नागरिक दशग्रीव के गृह के बाहर एकत्रित हो उसकी जय-जयकार मना रहे हैं।’’
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