उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
मारीच इच्यादि ने यह विख्यात कर रखा था कि राक्षस यक्षों (कुबेर के सजातियों) से अधिक बलशाली हैं। अतः यदि राक्षस संगठित हो जायें तो राज्य उनका हो जायेगा। इस आशा पर राक्षसों का संगठन बन गया था। सब बलशाली लोग दशग्रीव को राजा बनाने के लिये तैयार हो गये। उनको समझ में आने लगा कि राक्षस-राज्य स्थापित होने से उनको सब प्रकार की सुख-सुविधा अनायास ही मिलने लगेगी।
जब दशग्रीव के निवास-स्थान के बाहर सहस्त्रों की संख्या में बलवान राक्षस एकचित्र हो रहे थे तो प्रहस्त दशग्रीव का दूत बन कुबेर के राज-प्रासाद में जा पहुँचा। उसने सूचना भेज दी कि महाराज के कनिष्ठ भ्राता दशग्रीव का मन्त्री प्रहस्त, महाराज के दर्शन करना चाहता है।
इस सूचना पर कुबरे ने प्रहस्त को भीतर बुला अपने सम्मुख बैठा पूछ लिया, ‘‘कहाँ है दशग्रीव?’’
‘‘महाराज! वह नगर चौक के एक भवन में ठहरा हुआ है।’’
‘‘यहाँ क्यों नहीं आया?’’
‘‘इसी विषय पर उनका एक सन्देश लेकर आया हूँ।’’
‘‘हाँ बताओ?’’
प्रहस्त ने अति सभ्य भाषा में कहा, ‘‘महाराज! यह नगरी राक्षसों के राजा सुकेश और उसके पुत्रों ने निर्माण की थी। उससे पहले यहाँ उनके पूर्वजों ने राज्य स्थापित किया था। अतः राक्षस यह समझते हैं कि आपका यहाँ राज्य-पद पर आसीन होना अनधिकार चेष्टा है। अब राक्षसों ने आपके छोटे भाई और सुकेश के सुपुत्र सुमाली के नाती दशग्रीव को अपना राजा स्वीकार कर लिया है। अतः वह चाहता है कि यह राज्य आप अब अपने छोटे भाई को दे दें ।’’
कुबेर ने कह दिया, ‘‘परन्तु यहाँ शासन मैं नहीं करता। यहाँ के नागरिकों की एक समिति शासन करती है। उस समिति में राक्षस ही अधिक संख्या में हैं। मैं तो केवल उस समय समिति के कार्य में हस्तक्षेप करता हूँ जब समिति के सदस्य परस्पर सहमत नहीं होते।
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