उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
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मुनि विश्रवा के आश्रम के बाहर सुमाली दशग्रीव की प्रतीक्षा कर रहा था। जब वह बाहर आया तो उसने उससे पूछ लिया, ‘‘बताओ, क्या कर आये हो?’’
‘‘आपकी योजना विफल गयी है। भाई के नाते मुझे राज्य नहीं मिल सकता। यह राज्य देवताओं ने धनाध्यक्ष को दिया है और पिताजी उसको बिना देवताओं की स्वीकृति के मुझे नहीं दे सकते।’’
‘‘परन्तु दशग्रीव! राज्य कई प्रकार से लिया जा सकता है। इनमें छल, बल और भय प्रबल उपाय है। देखो, पहले वहाँ के राजा के लिये भय उत्पन्न करने का प्रबन्ध मैंने किया है। इस समय लंका की प्रजा में तीन-चौथाई राक्षस हैं। मेरे मित्र और मन्त्री तुम्हारी सहायता के लिये राक्षसों का संगठन पूर्ण कर चुके हैं। प्रजा का नेता प्रहस्त है। उसके सहायक हैं मारीच, विरुपाक्ष और महोदय। तुम वहाँ चलो और ये मेरे मन्त्री प्रजा की सहायता से तुम्हारे भाई को राज्य त्यागने के लिये विवश कर देंगे। मुझे विश्वास है कि तुम बिना भाई के हत्यारे कहलाये राज्य पा जाओगे।’’
दशग्रीव अपने नाना के विमान में लंका जा पहुँचा। उसके दोनों भाई और बहन अभी माताजी के पास ही रहे। लंका में दशग्रीव के पहुँचते ही सुमाली ने प्रहस्त को बुला भेजा और वह दशग्रीव को लेकर नगर में एक मकान में चला गया। वहाँ प्रहस्त के अन्य साथी उपस्थित थे।
प्रहस्त ने नगर में यह सूचना भेज दी कि उनके राजा सुमाली का नाती अपने नाना का राज्य प्राप्त करने लंका में आ गया है। इस सूचना पर नगर में राक्षस दशग्रीव के दर्शन करने जोंक-दर-जोंक जाने लगे।
देव-राज्य और राक्षस-राज्य में अन्तर यह था कि देव-राज्य में परिश्रम का फल मिलता था और राक्षस-राज्य शक्तिशाली जो चाहे, ले सकता था। इस कारण शक्तिशाली और उसके गुट्ट में सम्मिलित लोग सकल सुख-सुविधा के पालक समझे जाते थे।
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