उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘तब तो पिताजी, युद्ध होगा। इन्द्र हमारे शत्रु-पक्ष में है। उससे राज्य युद्ध से ही प्राप्त किया जा सकता है।’’
‘‘परन्तु वह तुम्हारी हत्या कर देगा।’’
‘‘यह तो है ही। यदि मेरा बस चला तो मैं उसकी हत्या कर दूँगा।’’
‘‘इस झगड़े में किसलिये पड़ते हो? तुम कुबेर के पास चले जाओ और राज्य का आनन्द तुम भी भोग करो। राज्य का उत्तरदायित्व उसके कन्धों पर ही रहने दो।’’
‘‘नहीं पिताजी! मैं राज्य ही लूँगा।’’
‘‘अच्छा, अब तुम जाओ। मैं इस विषय पर बात करना नहीं चाहता। इसमें मेरा अधिकार भी नहीं।’’ विश्रवा ने कहा और मुख मोड़ लिया। दशग्रीव उठा और कुटिया से निकल गया। समीप कैकसी बैठी पिता-पुत्र में सम्वाद सुन रही थी। दशग्रीव के चले जाने पर उसने कहा, ‘‘भगवान्! यह आपने क्या कर दिया है?’’
‘‘क्या कर दिया है?’’
‘‘भाई-भाई मैं विग्रह का बीज बो दिया है।’’
‘‘यह मूर्ख बालक नहीं जानता कि वह क्या कह रहा है?’’
‘‘श्रीमान्! वह ब्रह्मलोक से घोर तपस्या द्वारा शस्त्रास्त्र की विद्या सीखकर आया है। इससे अधिक सम्भावना तो बड़े भाई के मारे जाने की है।’’
‘‘देवता मरते नहीं।’’
‘‘परन्तु मर तो रहे हैं। विष्णु अब नहीं रहे।’’
विश्रवा चुप कर रहा।
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