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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

रेखा सिर से पांव तक इस तरह कांप गई मानो कोई बिजली उसके शरीर के आर-पार हो गई हो।

'जी..।' उसके कांपते होठों से निकला।

'इतनी देर तक कहां थीं?'

'सीधी बाजार से तो आ रही हूं।'

'दवा मिल गई? ’

‘जी.. परन्तु-।' उसने घवराहट में अपने आपको टटोला।

'परन्तु क्या?'

'शायद... ’

'खो गई? क्यों? होश में तो हो तुम।’

'बात यह है बाबा... कि न जाने... ‘’

'यह रूप क्या बना रखा है..... बिखरे हुए बाल... मसले हुए वस्त्र.... यह मलिन सूरत.... यह सव क्या है?'

रेखा से कोई उत्तर न बन सका। वह घवराकर इधर-उधर देखने लगी। सामने से एक कुत्ता गुजरा। उसे देखकर झट से वह बोल उठी-’बावा, जब बाजार से लौट रही थी तो मैंने सोचा, धोबीघाट के ताल से निकल जाऊं, शीघ्र पहुंच जाऊंगी? परन्तु जब उधर से आने लगी तो.. ’

'तो क्या हुआ? ’

'बाबा, धोबियों के कुत्ते मुझ पर भौंकने लगे। मैं और तेज चलने लगी तो वे भी मेरे पीछे भागने लगे और उन्होंने मुझे घेर लिया।'

'फिर?'

'फिर क्या होना था...।' रेखा ने बात के तारतम्य को ठीक रखते हुए कहा। जैसे वह बाबा को कोई बड़ी रोचक और भयपूर्ण कहानी सुना रही हो - बड़ी कठिनाई से प्राण बचे। कई बार तो गिर पडी। इसलिए बालों और कपड़ों की यह दुर्गति हुई.. और दवा की शीशी... कह तो वहीं फूटकर टुकड़े-टुकड़े हो गई।'

'अच्छा! यह बात है'.. तो मैं कल ही इन धोबियों का प्रबन्ध करूंगा।' रेखा की बात सुनकर राणा साहब क्रोध में उबल पड़े।

'नहीं बाबा।.. उन बेचारों का क्या दोष है? ’

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