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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'तो किसका दोष है?'

'मेरा... ! हम भला ऐसे मार्ग से जाएं ही क्यों जहां कुत्तों के पीछा करने का भय हो।’

'आज मेरी बिटिया बुद्धिमानी से बात कर रही है।'

'तो क्या पहले मूर्ख थी?'

'नहीं-नहीं'.. जाओ, मुंह-हाथ धोकर कपड़े बदल लो, मैं दवा की दूसरी शीशी ले आता हूं।'

राणा साहव के जाने के पश्चात् रेखा अपने कमरे में पहुंची तो थकान से उसका शरीर टूट रहा था। उसी दशा में वह बिस्तर पर जा गिरी और मन-ही-मन सोचने लगी। वह स्वयं ही बोल उठी,’रेखा, आज तूने अपने बाबा से झूठ क्यों कहा? ’

उसकी दृष्टि सामने दीवार पर टंगी तस्वीर पर गई। उसे लगा जैसे वह चित्र मुस्कराते हुए होठों से कह रहा हो-’कोई बात नहीं, प्रेम में ऐसा ही होता है।'

यह सोचकर उसने अपना मुंह तकिए में छिपा लिया और मोहन के विचारों में डूब गई।

प्रेम ने जीवन में पहली बार उसके मन में अंगडाई ली।

और उसकी गदगद कर देने वाली मिठास को वह कितनी ही देर तक बेसुध लेटी अनुभव करती रही।

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